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Analysis: मालदीव में आपतकाल की स्थिति भारत के लिए चिंता का विषय

मालदीव की स्थिति भारत के लिए एक नई सामरिक चिंता का विषय है, इसकी उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Thu, 08 Feb 2018 09:50 AM (IST)Updated: Thu, 08 Feb 2018 10:51 AM (IST)
Analysis: मालदीव में आपतकाल की स्थिति भारत के लिए चिंता का विषय

नई दिल्ली, [कमलेश पांडे]। मालदीव में आपतकाल की स्थिति भारत के लिए एक नई सामरिक चिंता का विषय है, जिसकी उपेक्षा करना अमेरिका भी नहीं चाहेगा। लिहाजा भले ही किसी दूसरे देश के मामले में हस्तक्षेप न करना भारत की नीति रही हो, लेकिन जब पास-पड़ोस में ही खतरे के स्पष्ट आसार दिखाई दें तो अपनी पहले से चली आ रही सोच में कुछ न कुछ बदलाव की बात लाजिमी है। ऑपरेशन कैक्टस न सही, मगर उससे कम में बात बनेगी, शायद ही इसमें किसी को भी संशय होगा

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संकट में मालदीव
हिंद महासागर स्थित द्वीपीय देश मालदीव में लोकतंत्र पर एक बार फिर से संकट के बादल मंडराने लगे हैं। सुप्रीम कोर्ट से अप्रत्याशित तनातनी के बाद मौजूदा राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन ने जिस तरह से पुन: आपातकाल थोपा है और इसकी आड़ लेकर न्यायपालिका को भयभीत करके उसे मैनेज कर लिया है, उसे कतई न्यायसंगत तो नहीं ठहराया जा सकता है। जाहिर है कि अब वहां विपक्ष और लोकतंत्र दोनों खतरे में है, जिसकी रक्षा करना लोकतंत्र के वैश्विक पहरेदारों का फर्ज बनता है। सवाल है कि क्या वे ऐसा कर पाएंगे? यदि नहीं तो, क्यों नहीं, और हां तो कैसे और किसके लिए? इस तरह हमें उपर्युक्त चिंताओं पर विचार कर आगे बढ़ना होगा।

इस बात में कोई दो राय नहीं कि राष्ट्रपति यामीन के कतिपय अटपटे निर्णयों से कई गंभीर जनतांत्रिक सवाल उठ रहे हैं, जिनका समुचित जवाब मिले बिना यही नहीं माना जा सकता कि मालदीव में लोकतंत्र महफूज है। कुछ प्रमुख सवाल इस प्रकार हैं। पहला, आपातकाल लागू होने के बाद जिस तरह से सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश अब्दुल्ला सईद और एक अन्य जज अली हमीद को अदालत परिसर से गिरफ्तार किया गया, क्या वह जायज है?

राष्ट्रपति यमीन के अटपटे निर्णय
दूसरा, राष्ट्रपति द्वारा जताई गई चिंताओं के मद्देनजर सर्वोच्च न्यायालय में शेष बचे तीन न्यायाधीशों ने राजनीतिक बंदियों की रिहाई संबंधी अपने ही कोर्ट के पूर्व के फैसले को जिस तरीके से पलट दिया, क्या वह उचित है? क्योंकि मुख्य न्यायाधीश अब्दुल्ला सईद ने पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद नशीद समेत नौ राजनीतिक बंदियों को रिहा करने का आदेश दिया था, जिससे राष्ट्रपति यामीन सहमत नहीं थे। तीसरा, जब मुख्य न्यायाधीश सईद की गिरफ्तारी के बाद उनके फैसले को भी पलटा जा चुका है, तब अंतरराष्ट्रीय बिरादरी के उस नसीहत का क्या मतलब रह जाता है कि राष्ट्रपति को न्यायालय के फैसले का सम्मान करना चाहिए?

चौथा, जब यह स्पष्ट हो चुका है कि मालदीव में न्यायिक स्वतंत्रता का अब कोई मतलब नहीं रह गया है, क्योंकि परिवर्तित परिस्थितियों में न्यायालय ने राष्ट्रपति के दबाब में काम करना शुरू कर दिया है तो फिर विपक्ष के न्यायिक हितों की रक्षा कौन करेगा और कैसे करेगा? पांचवां, आखिरकार लोकतंत्र के वैश्विक पहरेदार यह कैसे सुनिश्चित करेंगे कि वहां विपक्ष के साथ अन्याय नहीं हो रहा है, क्योंकि राष्ट्रपति यामीन के निशाने पर सिर्फ पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद नशीद ही नहीं हैं, बल्कि यामीन ने अपने चचेरे भाई व पूर्व राष्ट्रपति मौमून अब्दुल गयूम को भी गिरफ्तार करके जेल में डाल दिया है।

मालदीव में लोकतंत्र और विरोधी दल
इसका मतलब साफ है कि वर्ष 2013 में सत्ता में आने के बाद से ही राष्ट्रपति यामीन ने अपने धुर विरोधियों को कभी नहीं बख्शा और सीधे सलाखों के पीछे डलवा दिया, जिससे वहां विपक्ष और लोकतंत्र दोनों पर आसन्न खतरा नजर आ रहा है, जबकि नवंबर 2018 में वहां राष्ट्रपति पद का चुनाव होना है। छठा, जब मालदीव के अटॉर्नी जनरल को पहले से पता था कि संसद में राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन के खिलाफ महाभियोग का प्रस्ताव आ सकता है, तो स्वभाविक है कि राष्ट्रपति भी इससे अनभिज्ञ नहीं होंगे, लेकिन संभावित महाभियोग के प्रस्ताव का सामना करने के बजाय संसद में उसका मुकाबला नहीं करने के लिए उन्होंने जो रणनीति अपनाई और जिस तरह से हवाई अड्डे पर से ही 12 सांसदों को गिरफ्तार करवाकर संसद सत्र को स्थगित कर दिया, उससे साफ है कि राष्ट्रपति यामीन संसद का विश्वास खो चुके हैं और एन केन प्रकारेण सत्ता में बने रहना चाहते हैं, जो कि गलत है। व्यापक जनहित में इससे उन्हें बचना चाहिए।

सातवां, सुप्रीम कोर्ट भी अपने राष्ट्र की बदलती सियासी परिस्थितियों से वाकिफ था। यही वजह है कि गत एक फरवरी को उसने गिरफ्तार सांसदों को रिहा करने और पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद नशीद के खिलाफ चल रहे मामले को रद करने का आदेश दिया। इससे राष्ट्रपति यामीन को लगा कि अब नशीद के लिए वतन वापसी और चुनाव लड़ने की राह आसान हो चुकी है, इसलिए अप्रत्याशित रूप से यामीन ने अपना पैंतरा बदल दिया, जो कि अनुचित है। आठवां, भले ही यामीन के हर रोज बदलते पैंतरे से भारत समेत दुनिया के कई देश आश्चर्यचकित हैं और मालदीप पर कूटनीतिक दबाव बनाए हुए हैं, लेकिन यह अपर्याप्त है। अब इन देशों को भी यह समझना होगा कि यह सब कुछ अकस्मात नहीं हुआ, बल्कि राष्ट्रपति यामीन की सुनियोजित रणनीति का परिणाम है, जिसे चीन का शह प्राप्त है।

मालदीव और भारत
अंतिम, यह स्थिति भारत के लिए एक नई सामरिक चिंता का विषय है, जिसकी उपेक्षा करना अमेरिका भी नहीं चाहेगा। इसलिए भले ही किसी दूसरे देश के मामले में हस्तक्षेप न करना भारत की शाश्वत नीति रही है, लेकिन जब पास-पड़ोस में ही खतरे के स्पष्ट आसार दिखाई दें तो अपनी पुरानी सोच में कुछ न कुछ बदलाव लाने की बात सोचना लाजिमी है। ऑपरेशन कैक्टस न सही, लेकिन उससे कम में बात बनेगी, किसी को भी संशय होगा। कहना न होगा कि जब कोई सरकार प्रतिपक्ष को दबाने के लिए अपने हर हथकंडे आजमा कर विफल हो जाती है तो आपातकाल लागू करना ही उसके लिए अंतिम विकल्प होता है, जिसे उसने दोबारा आजमा लिया। सरकार ने पुलिस कर्मियों और सैनिकों को साथ लेकर न्यायालय और लोकतंत्र को दबाने की जो सफल चेष्टा की है, वह बेहद निंदनीय है।

सर्वोच्च न्यायालय ने ठीक ही कहा था कि विपक्षी नेताओं को दोषी ठहराने वाले सरकारी फैसले राजनीति से प्रेरित हैं। यही वजह है कि विपक्षी पार्टियों के समर्थकों ने विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया है। वह राजनीतिक बंदियों को छोड़ने और सरकार के इस्तीफे की मांग कर रहा है। जहां-तहां पुलिस और प्रदर्शनकारियों के बीच झड़पें भी हो रही हैं, जिससे यामीन सरकार डर गई है और आपातकाल थोपकर सबको कुचल रही है। यह लोकतंत्र का गला घोंटने जैसा है जिसे विश्व बिरादरी को कतई बर्दाश्त नहीं करना चाहिए। लोकतंत्र की वकालत करने वाली दुनिया के देशों को सोचना होगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं) 


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