सुरक्षा परिषद की संरचना में सुधारों के मुद्दे को आगे बढ़ाना भारत के व्यापक हित में
संयुक्त राष्ट्र के इस शीर्ष मंच पर अध्यक्षीय संबोधन की ऐतिहासिक उपलब्धि हासिल करने वाले नरेंद्र मोदी पहले भारतीय प्रधानमंत्री हैं। इस अवसर को भुनाने के लिए सुरक्षा परिषद की संरचना में सुधारों के मुद्दे को आगे बढ़ाना भारत के व्यापक हित में रहेगा
डा. विजय कुमार सिंह। वर्ष 1945 में संयुक्त राष्ट्र की स्थापना के बाद से वैश्विक भू-राजनीति जैसे मुद्दों में भारी बदलाव आया है, लेकिन यूनाइटेड नेशंस सिक्योरिटी काउंसिल की वर्तमान संरचना भी वर्ष 1945-46 की भू-राजनीतिक परिस्थितियों का प्रतिनिधित्व करती हुई नजर आती है। जब यूएन यानी संयुक्त राष्ट्र की स्थापना की गई थी तब उसके चार्टर पर दस्तखत करने वाले सिर्फ 50 देश थे। आज उनकी संख्या 193 हो गई है, लेकिन उसकी संरचना में खास बदलाव नहीं आया है। कहा जा सकता कि आज जो सुरक्षा परिषद है वह उस भू-राजनीतिक परिस्थिति का प्रतिनिधित्व करती है जो द्वितीय विश्व युद्ध के अंत में थी।
संयुक्त राष्ट्र की स्थापना के बाद से कई देश इसमें शामिल हुए हैं, इसके बावजूद संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद नए देशों और क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करने में असफल रहा है। आज भी दक्षिण अमेरिका और अफ्रीका जैसे महाद्वीप का एक भी देश संयुक्त राष्ट्र का स्थायी सदस्य नहीं है। एशिया जैसे बड़े महाद्वीप का भी प्रतिनिधित्व उसके महत्व के अनुरूप नहीं है। बीते दशकों में विश्व की आर्थिकी व राजनीति का स्वरूप बहुत बदल गया है और विकासशील देशों की संख्या तेजी से बढ़ी है, किंतु स्थायी सुरक्षा परिषद में केवल एक देश ही विकासशील देशों का प्रतिनिधित्व करता है।
भारत तेजी से उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं में से एक है। ऐसा ही ब्राजील के साथ है। जापान विकसित देश है और जर्मनी यूरोप का सबसे समृद्ध राष्ट्र है। परंतु इनमें से कोई भी सुरक्षा परिषद में नहीं है। ऐसे में यह कह सकते हैं कि संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद आज की दुनिया की वास्तविकताओं के अनुरूप नहीं है और चुनौतियों का समाधान करने में असमर्थ है। वैश्विक बिरादरी के समक्ष नए मुद्दे मसलन पर्यावरण, आतंकवाद, जलवायु परिवर्तन और शरणार्थी समस्या इत्यादि ज्यादा प्रासंगिक हो गए हैं। अत: यूएन तथा इसकी सुरक्षा परिषद की संरचना और कार्यशैली में भी बदलाव होना बेहद जरूरी है। कोविड महामारी को 21वीं सदी में मानवता का सबसे बड़ा संकट माना जा रहा है। लेकिन संकट के इस वैश्विक परिदृश्य में जिस प्रकार संयुक्त राष्ट्र और विश्व स्वास्थ्य संगठन का असफल नेतृत्व दिखा, वह वाकई चिंताजनक है। इसमें कोई शक नहीं कि संयुक्त राष्ट्र कोरोना वायरस के वैश्विक संकट पर प्रभावी ढंग से प्रतिक्रिया देने में असमर्थ रहा है।
पश्चिम एशिया के देशों में आज हालात काफी तनावपूर्ण हैं। सीरिया, लेबनान, इजराइल, फलस्तीन जैसे संकट साफ तौर पर बता रहे हैं कि दुनिया के कुछ खास विकसित देशों, जिनका कि संयुक्त राष्ट्र में हर तरह से दबदबा है, उन्होंने इस क्षेत्र को युद्ध के अखाड़े में तब्दील कर डाला है। अफगानिस्तान दो महाशक्तियों- रूस और अमेरिका का लंबे समय तक युद्ध स्थल बना रहा। अब एक बार फिर वहां तालिबान के आने से बहुत कुछ बदलता हुआ दिख रहा है। दक्षिण अमेरिकी देशों से लेकर अफ्रीका और एशियाई देश जिस आंतरिक और बाहरी संकट का सामना कर रहे हैं, वह कम भयावह नहीं है। ऐसे में वर्तमान वैश्विक मुद्दों को देखते हुए आज विश्व को पहले से कहीं अधिक बहुपक्षवाद की आवश्यकता है। अत: यूएन की सुरक्षा परिषद की संरचना में बदलाव समय की मांग है। इतना ही नहीं, संयुक्त राष्ट्र को बदलते समय के साथ तालमेल रखने के लिए स्थायी और गैर-स्थायी सदस्यों की संख्या में भी वृद्धि करनी चाहिए।
भारत की दावेदारी : भारत सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता का प्रबल दावेदार है। भारत करीब 137 करोड़ की आबादी और दो खरब डालर से अधिक अर्थव्यवस्था वाला एक परमाणु शक्ति संपन्न देश है। यह दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र और एशिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। संयुक्त राष्ट्र के शांति अभियानों में सर्वाधिक योगदान देने के साथ भारत क्षेत्रीय आकार, जीडीपी, आर्थिक क्षमता, संपन्न विरासत और सांस्कृतिक विविधता इन सभी पैमानों पर खरा उतरता है। हमारे देश की विदेश नीति ऐतिहासिक रूप से विश्व शांति को बढ़ावा देने वाली रही है। यही नहीं, भारत संयुक्त राष्ट्र के संस्थापक सदस्यों में शामिल है तथा पारंपरिक रूप से वसुधैव कुटुंबकम और विश्व शांति जैसे विचारों का समर्थक है। स्पष्ट है कि भारत सामाजिक, आíथक, सांस्कृतिक तथा भौगोलिक इन सभी दृष्टि से संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता के योग्य है। संयुक्त राष्ट्र के स्थायी सुरक्षा सदस्य के रूप में भारत जैसे शांतिप्रिय देश के चयन से इसके लोकतांत्रिक मूल्यों में वृद्धि होगी और वैश्विक सद्भाव को बढ़ावा मिलेगा।
यूएन की सुरक्षा परिषद में सुधार में सबसे बड़ी बाधा की बात करें तो इसके पांच स्थायी सदस्य ही हैं, जो किसी अन्य देश को स्थायी सदस्य के रूप में शामिल नहीं होने देना चाहते। समस्या यह है कि सुरक्षा परिषद की संरचना और रूपरेखा में बदलाव के लिए हमें परिषद के पांच स्थायी सदस्यों से पांचों का सकारात्मक वोट चाहिए। फिलहाल वे तैयार नहीं हैं, खासकर चीन बदलाव का विरोध करता है। इसके अलावा, कई देश आपस में ही एक दूसरे की दावेदारी को नकार रहे हैं, मसलन पाकिस्तान नहीं चाहता कि भारत स्थायी सदस्य बने, वहीं चीन जैसा साम्यवादी देश इसके लिए जापान का विरोध कर रहा है।
निसंदेह दुनिया में शांति, स्थिरता, सुरक्षा और विकास के लिए जरूरी है कि यूएन निष्पक्ष और मजबूत बने तथा समस्त देशों को इसके विभिन्न अंगों में प्रतिनिधित्व का समान अवसर प्राप्त हो। चूंकि यूएन के अधिकांश सदस्य सुरक्षा परिषद के विस्तार और सुधार का समर्थन करते हैं, इसलिए उम्मीद की जा सकती है कि गंभीर चुनौतियों के बावजूद इस दिशा में प्रगति होगी और कोई नतीजा निकलेगा। संयुक्त राष्ट्र और स्थायी सदस्यों को भी समयबद्ध प्रक्रिया के तहत सुधारों की ओर बढ़ने का संकल्प लेना चाहिए, अन्यथा इसका अस्तित्व ही निर्थक हो जाएगा।
[प्रोफेसर, वीर कुंवर सिंह विश्वविद्यालय आरा (बिहार)]