भारत के लिए भी एक बड़ी चुनौती है अमेरिका-रूस के बीच बढ़ता शीतयुद्ध
रूस और ब्रिटेन के मध्य हुए एक छोटे से राजनयिक विवाद ने धीरे-धीरे विश्व के कई ताकतवर देशों के बीच शीतयुद्ध जैसा रूप ले लिया है। ब्रिटेन के समर्थन में बीस से अधिक यूरोपीय देशों सहित अमेरिका भी आ गया है।
नई दिल्ली [पीयूष द्विवेदी] रूस और ब्रिटेन के मध्य हुए एक छोटे से राजनयिक विवाद ने धीरे-धीरे विश्व के अनेक महाशक्ति राष्ट्रों के बीच शीतयुद्ध जैसा रूप ले लिया है। पूरे घटनाक्रम पर दृष्टि डालें तो बीते मार्च में रूस के पूर्व जासूस सर्गेई स्क्रिपल और उनकी बेटी पर ब्रिटेन में हुए रासायनिक हमले के बाद इस विवाद की शुरुआत हुई। उल्लेखनीय होगा कि पूर्व में सर्गेई स्क्रिपल रूस की सेना के खुफिया विभाग में कर्नल रह चुके हैं, जिस दौरान उन पर रूस के ही खिलाफ जासूसी करने का आरोप लगा था। इसके बाद उन्हें तेरह वर्षो की सजा हुई, लेकिन 2010 में रूस और ब्रिटेन के बीच हुए एक समझौते के तहत सर्गेई रूस को छोड़कर ब्रिटेन में आ बसे थे। अत: अब जब उन पर रासायनिक हमला हुआ तो इसका आरोप ब्रिटेन ने रूस पर लगाते हुए उसके 23 राजनयिकों को निष्कासित कर दिया। बदले में रूस ने भी ब्रिटेन के उतने ही राजनयिकों को निकालने का एलान कर दिया, जिसके बाद ब्रिटेन के समर्थन में बीस से अधिक यूरोपीय देशों सहित अमेरिका ने भी रूसी राजनयिकों को निष्कासित करने की घोषणा कर दी।
महाशक्ति देशों के बीच द्विध्रुवीय स्थिति
रूस की तरफ से भी इसकी समान प्रतिक्रिया हुई। इसके बाद अब विश्व के इन महाशक्ति देशों के बीच द्विध्रुवीय स्थिति उत्पन्न हो गई है, जिसमें एक छोर पर रूस खड़ा है तो दूसरे पर अमेरिका सहित यूरोपीय देश खड़े हैं। अब प्रश्न यह है कि अमेरिका-यूरोप और रूस के बीच छिड़ा ये कथित शीतयुद्ध विश्व समुदाय को कितना और किस प्रकार प्रभावित करेगा? यहां सबसे पहले तो हमें यह समझ लेना होगा कि आखिर शीतयुद्ध होता क्या है और इस ताजा विवाद की तुलना शीतयुद्ध से क्यों की जा रही? दरअसल शीतयुद्ध कुटनीतिक दांव-पेचों और गुटबाजियों द्वारा अलग-अलग देशों के बीच एक-दूसरे पर दबाव बनाने की कवायदों को कहा जाता है। इसमें हथियारों से नहीं, कूटनीतिक दांव-पेचों से लड़ाई होती है। शीतयुद्ध का आरंभ दूसरे विश्वयुद्ध के बाद अमेरिका, ब्रिटेन और तत्कालीन सोवियत रूस के बीच मतभेद उत्पन्न होने के बाद से माना जाता है।
साम्यवादी शासन प्रणाली
स्थिति ऐसी बनी कि साम्यवादी शासन प्रणाली को अपनाने वाले देश सोवियत रूस के और पूंजीवादी शासन प्रणाली को अपनाने वाले देश अमेरिका के पक्ष में खड़े हो गए। माना जाता है कि 1991 में सोवियत संघ का विभाजन होने से रूस की शक्ति में कमी आई, वैश्विक महाशक्ति के रूप में अमेरिका का एकछत्र दबदबा कायम हुआ और इसी के साथ शीतयुद्ध का भी अंत हो गया। ताजा मामले में जिस तरह से रूस के विरुद्ध अमेरिका और यूरोपीय देशों की लामबंदी हुई है, उसे देखते हुए ही इसे शीतयुद्ध के रूप में परिभाषित किया जा रहा है। इसमें कोई संशय नहीं कि अमेरिका-यूरोप और रूस जैसी महाशक्तियों के बीच उपजा यह विवाद वैश्विक स्थिरता और शांति के लिए चिंताजनक है। चिंता का सबसे बड़ा कारण इस विवाद का लगभग ‘अकारण’ ही पैदा होना है।
राजनयिकों का निष्कासन
गौर करें तो रूस के पूर्व जासूस पर रासायनिक हमले के संदेह भर में जिस तरह से ब्रिटेन ने रूस के 23 राजनयिकों को निष्कासित कर दिया, वह कतई उचित और अपेक्षित कार्रवाई नहीं थी। तिसपर ब्रिटेन के बाद अन्य यूरोपीय देशों और अमेरिका ने भी जिस तरह से रूस के राजनयिकों को निष्कासित किया, वह और भी विचित्र रहा। इन बातों को देखते हुए ऐसा लगता है जैसे जानबूझकर यूरोप और अमेरिका द्वारा इस विवाद को जन्म दिया गया है। अन्यथा एक सामान्य सी घटना के कारण इस तरह की कार्रवाई का कोई औचित्य नहीं है। अब इसके पीछे यूरोपीय देशों और अमेरिका की क्या मंशा है, इस विषय में अभी स्पष्ट रूप से तो कुछ नहीं कहा जा सकता, पर इतना जरूर है कि इस पूरे घटनाक्रम में यूरोप और अमेरिका द्वारा कहीं न कहीं अपनी एकजुटता का प्रदर्शन कर रूस पर एक प्रकार से दबाव बनाने का ही प्रयास किया गया है। हालांकि रूस ने जिस तरह से इन देशों को उन्हीं की भाषा में उत्तर दिया है, उससे लगता नहीं कि वह किसी दबाव में आने वाला है।
वैश्विक परिस्थितियां अलग
बहरहाल प्रथम शीतयुद्ध के समय वैश्विक परिस्थितियां अलग थीं। तब भारत आदि कई देश तो ताजा-ताजा ही आजाद हुए थे और अपने पैरों पर खड़े होने की जद्दोजहद में लगे थे, लेकिन आज स्थिति बदल चुकी है। अब विश्व में कोई भी हलचल होने पर भारत उससे बचकर नहीं रह सकता। मौजूदा मामला भारत के लिए न केवल कूटनीतिक दृष्टि से चुनौतीपूर्ण है, बल्कि चिंताजनक भी है। कारण कि रूस से जहां भारत के पारंपरिक रूप से मधुर संबंध रहे हैं, वहीं अमेरिका से उसके संबंध हाल के दिनों में लगातार बेहतरी की तरफ अग्रसर हैं। ब्रिटेन आदि देशों से भी भारत के संबंध अच्छे हैं। मोदी सरकार के सत्तारूढ़ होने के बाद भारत ने रूस और अमेरिका दोनों ही देशों के बीच संबंधों का शानदार संतुलन स्थापित कर भारतीय विदेश नीति के एक बड़े यक्ष-प्रश्न को हल कर दिया है, लेकिन अब इस ताजा विवाद ने उस यक्ष-प्रश्न को पुन: भारत के समक्ष खड़ा कर दिया है।
शीतयुद्ध जैसी कठिन परिस्थिति
चुनौती इस लिहाज से भी चिंताजनक है कि अगर भारत अमेरिका के पक्ष में खड़ा होता है तो एशिया में कोई और मजबूत साथी न पाकर रूस चीन का रुख कर सकता है, जो कि भारत के लिए किसी प्रकार से ठीक नहीं होगा। ऐसे ही रूस के साथ खड़े होने का अर्थ है कि अमेरिका सहित अपने तमाम यूरोपीय मित्र देशों के विरोध में खड़ा होना। ऐसे में देखना महत्वपूर्ण होगा कि भारत इस कूटनीतिक चुनौती का मुकाबला किस प्रकार से करता है। हालांकि एक बात है जो रूस-अमेरिका के संबंध में भारत के पक्ष को लगभग सर्वकालिक रूप से बेहद मजबूत बनाती है और जिसके दम पर भारत अपना पक्ष दृढ़ता से रख सकता है, वह यह है कि रूस और अमेरिका दोनों ही देश किसी भी स्थिति में भारतीय बाजार की उपेक्षा करने की हिम्मत नहीं दिखा सकते। ऐसे में उम्मीद की जा सकती है कि भारत शीतयुद्ध जैसी इस कठिन परिस्थिति में भी अपने संबंधों का संतुलन कायम रखने में कामयाब साबित होगा। संभव है कि इजरायल और फलस्तीन के विवाद में मध्यस्थता के लिए जिस प्रकार भारत का नाम उठा था, वैसे ही इस विवाद में भी भारत कोई मध्यस्थ भूमिका निभाने में सक्षम सिद्ध हो सके।
राजनयिकों के खिलाफ कानून उल्लंघन के बावजूद दर्ज नहीं होता है मुकदमा
‘रूस और ईरान के चलते डीजल और पेट्रोल के दामों में अब पहले जैसी नरमी आना मुश्किल’
भुटटो ने ही जिया उल हक को बनाया था सेनाध्यसक्ष बाद में उसने ही दी उन्हेंं फांसी
भारत से पहले चीन को हुई रूसी S- 400 Triumf मिसाइल सिस्टम की डिलीवरी