सामाजिक सरोकारों के और निकट पहुंचे संत समाज
बदलते दौर में क्या संतों, महंतों, मठों और अखाड़ों को सामाजिक सरोकारों की ओर नहीं बढ़ना चाहिए? देखिए, सम्पूर्ण जगत कालचक्त्र के अधीन है और परिवर्तन भी इससे अछूता नहीं। काल व परिवर्तन का घूमता चक्त्र हमेशा इस बात की मांग करता है कि समाज उसके साथ कदमताल करे।
बदलते दौर में क्या संतों, महंतों, मठों और अखाड़ों को सामाजिक सरोकारों की ओर नहीं बढ़ना चाहिए?
देखिए, सम्पूर्ण जगत कालचक्त्र के अधीन है और परिवर्तन भी इससे अछूता नहीं। काल व परिवर्तन का घूमता चक्त्र हमेशा इस बात की मांग करता है कि समाज उसके साथ कदमताल करे। जो समाज, परिवर्तन के साथ सामंजस्य नहीं बैठा पाता, वही पिछड़ा समाज कहलाता है। यकीनन संत समाज को इस कलियुग में अपनी शक्ति को देखते हुए उसका उपयोग जन कल्याणकारी कार्यो में .और खुलकर करना होगा। गिनाया जा सकता है कि संत समाज द्वारा तमाम विद्यालय, अस्पताल व अन्य कल्याणकारी संस्थाओं का संचालन किया जाता है मगर इस प्रयास को और गति देनी होगी।
जल को संरक्षित करने का मसला बड़ा है, पौधरोपण की बात को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। इसी क्त्रम में आप स्वास्थ्य और शिक्षा को भी बिल्कुल तरजीह देना चाहेंगे। सवाल खड़ा होता है कि यह काम तो व्यवस्था का है, भला संत समाज इसमें क्या योगदान दे और कैसे? जवाब ऊपर की पंक्तियों में छुपा है कि संत समाज को इस कलियुग में अपनी शक्ति को देखते हुए उसका उपयोग जन कल्याणकारी कार्यो में करना होगा क्योंकि यही वक्त की मांग है। हां, इसमें प्रशासनिक पहल काफी महत्वपूर्ण हो सकती है। आखिर समन्वयक की भूमिका तो उन्हीं की होनी है।
विज्ञान के इस युग में क्या धर्म गुरुओं को अपनी भूमिका बदलनी चाहिए?
भौतिक विकास के प्रतिनिधित्व कर्ता विज्ञान को उस धर्म से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए जो अध्यात्म का प्रतिनिधित्व करता है। भौतिक विकास के लिए, जैसा कि जाहिर है, भौतिक विज्ञान की आवश्यकता पड़ेगी ही मगर यह नहीं भूलना है कि विज्ञान को सृजित, अविष्कारित व संचालित करने वाले सभी वैज्ञानिकों, मानवों व उपभोगकर्ताओं को अध्यात्म का अवलंब चाहिए होता है। धर्म के साथ ऐसी विवशता नहीं। धर्म तब भी था जब विज्ञान का कहीं अता पता न था। .तो जाहिर है कि धर्म और अध्यात्म की आवश्यकता मानव को प्रथम दिन से ही पड़ जाती है। हां, अब विज्ञान की भौतिकता मानव के साथ अपने आप ही हो ले तो इसे परिवर्तन के साथ कदमताल करना नहीं कहेंगे तो क्या कहेंगे। आखिर संतों के हाथ में भी तो अब मोबाइल फोन चमक रहे हैं, गाडि़यां दौड़ रही हैं, टीवी बोल रहे हैं, एटीएम कार्ड कैश हो रहे हैं। आशय यह है कि दौर तो बदला ही है, सामंजस्य भी बैठ ही रहा है। बड़े से बड़ा चिकित्सक भी अंतिम हार के पूर्व मरीज के परिवारीजनों से एक बार प्रभु को याद करने, उनसे प्रार्थना करने की सलाह दे ही देता है अर्थात, संत समाज को अपनी मौलिकता पकड़े रहने की जरूरत है। राग मयी संस्कृति से दूर, बेहद दूर त्याग मयी संस्कृति की छांव में ही व्यक्ति, समाज और देश का कल्याण निहित है।
शंकराचार्यो की कुछ नई खेप भक्तों के बीच भ्रम पैदा कर रही है। इनकी मान्यता कितनी?
यह बिल्कुल शुभ संकेत नहीं है। भारत के चार कोनों में स्थापित चार पीठों के चार शंकराचार्यो की व्यवस्था ही शास्त्र सम्मत है। बेहद निंदनीय है कि इसके स्वरूप से अब छेड़छाड़ की जा रही है। कई स्वयंभू शंकराचार्य मैदान में आ गए हैं तो इस समस्या का निस्तारण कैसे हो। एक बात जरूर है कि जिस काल में चार शंकराचार्य पीठ की स्थापना हुई, तब से आजतक के दौर में भारी जनसंख्या वृद्धि हुई है। भक्तों तक धर्म ज्ञान की गंगा बहाने के लिए कुछ उप शंकराचार्य पद सृजित किए जा सकते हैं लेकिन वह भी विद्वत परिषद में मंथन होने पर। इसके उलट हो यह रहा है कि तमाम लोग स्वयंभू तरीके से शंकराचार्य अथवा महामंडलेश्वर बन जा रहे हैं। यह घातक प्रक्त्रिया अविलंब रोक की मांग करती है।
इस हेतु आखिर पहल कौन करेगा?
देखिए, यह संत समाज से जुड़ा मामला है तो पहल भी संत समाज को ही करनी होगी। इस गंभीर मामले का संज्ञान तो स्वयं शंकराचार्यो को लेना चाहिए। प्रतिष्ठित अखाड़ों, मठों और महामंडलेश्वरों के साथ विद्वत परिषद की बैठक में इसपर चिंतन होना चाहिए। संत समाज में पद का अपना अलग महत्व है जिसकी मौलिकता पर आंच आना समाज हित में नहीं। यह विखण्डन को जन्म देता है।
महाकुंभ 2013 में चतुष्पथ विवाद क्यों नहीं निबट सका?
कतिपय कारणों से चतुष्पथ की अवधारणा प्रभावित हुई है। चतुष्पथ मूलत: जुड़ा है चतुष्पद अर्थात चार सर्वोच्च पद से। अभी संत समाज के पास तीन ही शंकराचार्यो का नेतृत्व है। पीठ चार जबकि शंकराचार्य तीन .तो सबसे पहले तो संत समाज इस मामले में पहल कर ले। अब रहा महाकुंभ 2013 में चतुष्पथ न बन पाने का सवाल तो जवाब यही हो सकता है कि शासन व कुंभ प्रशासन को विवेकपूर्ण रवैया अपनाना चाहिए था।
महाकुंभ में धर्म संसद को लेकर क्या संभावना है?
संत समागम तो चल ही रहा है। अब महंत और श्री महंत विचार कर च्वलंत समस्याओं पर अवश्य ही कोई मार्ग तलाशेंगे, ऐसा मेरा मानना है।
क्या आज की राजनीति, समाज को सार्थक दिशा दे पा रही है?
मैं निंदा तो नहीं करुंगा मगर आज की राजनीति ने मजहब और जाति का चोला ओढ़ लिया है। आप पाएंगे कि इसके दुष्परिणाम साफ दिखाई दे रहे हैं। समाज बंटता जा रहा है। जाति, मजहब व वर्ण व्यवस्था प्रभावी होती जा रही है। कहां तो होना यह चाहिए था कि समाज को अर्थ के आधार पर चार वर्गो में रखते हुए उद्धार के राजनीतिक प्रयास किए जाते मगर हो यह रहा है कि इसे वोट कलेक्शन का आधार बना दिया गया। समानता और असमानता की खाई बढ़ी। जाहिर है कि राजनीति के इस दुराग्रही रवैये ने संत समाज की भूमिका को काफी चुनौतीपूर्ण कर दिया है। संत जनों के पीछे खड़े भक्त जन तो एक दिखते हैं मगर अपनी दुनिया में लौटते ही वही समाज, कई भागों में विभक्त दिखने लगता है। मैं फिर कहूंगा कि ऐसे में संत समाज की भूमिका बेहद चुनौतीपूर्ण हो गई है क्योंकि राजनीतिज्ञों का समाज मूलत: सामाजिक सरोकारों से कटा हुआ नजर आ रहा है। वजह भी है, वोट की राजनीति ने उन्हें अपने अपने मत सेक्टर में गोलबंद कर दिया है। इससे इतर न वो कुछ सोच पा रहे हैं न कुछ कर पा रहे हैं। राजनीति अपने पथ से भटकी नजर आ रही है। जाहिर है भूमिकाएं अब संदेह के घेरे में हैं।
मगर संत समाज में भी तो तमाम लोग भौतिकवादी सोच और दुनियावी चकाचौंध से घिरे नजर आ रहे हैं?
जवाब को मैं महाकुंभ से जोड़कर देना चाहूंगा। उत्तर प्रदेश में बिजली की स्थिति चाहे जो भी हो, महाकुंभ नगर पूरी तरह जगमग कर रहा है। देखिए, कुंभ तब भी महान आयोजन था जब लालटेन तक का आविष्कार नहीं हुआ था।
ढिबरी की रोशनी में लगे महाकुंभ का प्रकाश भी पूरी दुनिया में फैला। संत समाज कभी यह नहीं कहता कि आप अध्यात्म को व्यवस्था से जोड़ दो लेकिन बदलते दौर में संत जनों के पीछे खड़े भक्त जनों का ख्याल अगर व्यवस्था द्वारा रखा जा रहा है तो इसे अनुचित नहीं कहा जा सकता। संत तो आसमान में चमकते चांद की तरह है जिसके इर्द गिर्द सितारे रूपी भौतिक सुख अपना घेरा-डेरा डाल ही देते हैं।
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