लहरों पर गोल्डन कामयाबी की दास्तां लिखने वाले इन खिलाड़ियों की कहानी है फिल्मी
एशियाई खेलों में नौकायन में गोल्ड जीतने वाले स्वर्ण सिंह पैसे की चाहत में सेना में हुए थे तो कांस्य जीतने वाले भगवान को घर चलाने की मजबूरी सेना में लाई थी।
जालंधर [अविनाश कुमार मिश्र]। आज की तारीख में नौकायन खेल के दो सफल नाम हैं स्वर्ण सिंह और भगवान। एशियन गेम्स 2018 में एक की झोली में सोना तो दूसरे की झोली में कांस्य पदक गिरा। इन दोनों की कहानी भी बिल्कुल फिल्मी है। बचपन में दोनों का लहरों से कोई वास्ता न था। नौकायन क्या बला है। यह भी नहीं जानते थे, लेकिन अब वे लहरों पर ही सफलता की कहानी लिख रहे हैं।
स्वर्ण सिंह मानसा जिले के छोटे से गांव दलेलवाला के हैं। वह वर्ष 2008 में सेना में भर्ती हुए। तब तक वह नौकायन के बारे में नहीं जानते थे। नौकायन के प्रति उनमें रुचि कैसे व क्यों जगी। इस बारे में वह विभिन्न समय पर दिए साक्षात्कार में कई बार जिक्र कर चुके हैं।
बकौल स्वर्ण सिंह, 'मैं सेना में पैसों के लिए भर्ती हुआ था। वर्ष 2009 में रांची में सिख रेजीमेंट में तैनात था। गणतंत्र दिवस के परेड की तैयारी कर रहा था। एक दिन एक अधिकारी मेरे पास आए और कहा, नौकायन टीम में शामिल होंगे। मैं अवाक सा उनको देखने लगा। नौकायन क्या है, यह मुझे पता ही नहीं था। फिर भी अधिकारी ने कहा था तो मैं मना नहीं कर सका। मुझे सिर्फ मेरी लंबाई के कारण चुना गया। नौकायन टीम में शामिल करने के लिए 185 सेंटीमीटर से ज्यादा लंबाई वाले लड़कों की तलाश थी। खुशकिस्मती से मैं सैन्य अधिकारियों की उम्मीदों पर खरा उतरता था। मुझे टीम में रख लिया गया और ट्रेनिंग शिविर में भाग लेने के लिए पुणे भेजा गया।'
स्वर्ण सिंह कहते हैं, 'मुझे पता था कि अगर इस खेल में भाग लिया और जीता तो मुझे प्रमोशन मिलेगा। प्रमोशन की चाह में नौकायन मुकाबले में भाग लेने लगा। इसके बाद मैंने मुड़कर कभी नहीं देखा। विभिन्न राष्ट्रीय मुकाबलों के अलावा ओलंपिक व एशियन गेम्स में भाग लेकर ऊंचा मुकाम पाया है।
भगवान सिंह : कलम छोड़ बने बंदूक के सिपाही, और अब हैं लहरों के भी राही
नौकायन के युगल्स स्कल्स के फाइनल में ही भगवान सिंह व रोहित सिंह की जोड़ी ने कांस्य पदक जीता है। भगवान सिंह सपने में भी सेना में जाने की नहीं सोच रहे थे। वह पत्रकारिता के क्षेत्र में करियर बनाना चाहते थे, पर किस्मत सेना में लाई। आज वह नौकायन में एक मुकाम पा चुके हैं। मीडिया कोे वह अपनी आपबीती बताते हैं तो भावुक उठते हैं।
भगवान सिंह।
बकौल भगवान सिंह, 'मैं पत्रकार बनना चाहता था। इसके लिए मैं वर्ष 2012 में चंडीगढ़ में जर्नलिज्म से बीए की पढ़ाई कर रहा था। बीए का दूसरा साल था। मेरे पिता ट्रक ड्राइवर थे। अन्य ट्रक चालकों की संगत के कारण उन्हें शराब पीने की लत लग गई थी। इस लत के कारण उनकी हालत बहुत खराब हो गई। उनके एक फेफड़े ने काम करना बंद कर दिया। मेडिकल जांच मेें पता चला कि उनको टीबी की बीमारी है। पिता ने ट्रक चलाना बंद कर दिया। अब परिवार का गुजारा करने के लिए मेरा काम करना जरूरी था। वर्ष 2012 में ही मैंने पढ़ाई छोड़ दी और सेना में भर्ती हो गया। नौकायन टीम में भी मेरा चयन हो गया है। इसके बाद लहरों पर मैंने कामयाबी की दास्तां लिखनी शुरू कर दी।'