इस अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी ने जिस खेल के लिए छोड़ा पिता का अंतिम संस्कार, उस खेल ने नहीं दी रोटी
वुशु से मेडल मिले, सम्मान मिला पर भूखे पेट ने मजदूरी के लिए विवश कर दिया।
रोहतक, प्रदीप राठी। वुशु में सात बार स्टेट और नौ बार राष्ट्रीय चैंपियन बनने वाले रोहतक, हरियाणा के लाखनमाजरा का संजय भले ही मैदान में जीत गए हों, पर हालात से इस कदर हारे कि उन्हें अब वुशु नहीं, सिर्फ रोटी की चिंता सताती रहती है। आलम यह है कि पदक जीतकर मीडिया की सुर्खियों में रहने वाले संजय अपना और परिवार का पेट पालने के लिए दिहाड़ी मजदूरी करने पर विवश हैं। पैसे के अभाव में वह ट्रायल देने तक नहीं पहुंच सके और वुशु से उनका साथ लगभग छूट गया है।
संजय को मलाल है कि देश में सबसे बेहतर नीति का दावा करने वाले प्रदेश हरियाणा में ही उनकी प्रतिभा दम तोड़ रही है। लाखनमाजरा के गरीब परिवार में जन्मे संजय पांच भाइयों में तीसरे हैं। अनुसूचित जाति में शामिल परिवार की गुजर बसर मजदूरी से होती है। पिता का साया संजय के सिर से कई साल पहले ही उठ चुका है और बुजुर्ग मां अक्सर बीमार रहती हैं। संजय का कहना है कि दिहाड़ी से ही काम चलता है। आधी दिहाड़ी तो मां के इलाज पर ही खर्च हो जाती है। बाकी घर का चूल्हा चौका कैसे चलता है, इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। इतने साल अभ्यास और वुशु में जुटे रहने के चलते वह दिहाड़ी के अभ्यस्त नहीं हैं, मगर पेट पालने के लिए ऐसा करना मजबूरी है।
संजय कहते हैं कि 14 साल में मेहनत इसी उम्मीद से की थी कि मुकाम मिलेगा। मेडल मिले, सम्मान मिला पर भूखे पेट ने मजदूरी के लिए विवश कर दिया। 2013 में मलेशिया में आयोजित वुशु प्रतियोगिता में जब वे आर्मेनिया के खिलाड़ी के साथ मुकाबला कर रहे थे, उसी समय पिता का देहांत हो गया। इस घटना को याद करते हुए संजय का कहना है कि वह अपने पिता की अर्थी को कंधा देने तक के लिए नहीं पहुंच पाए।