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खतरे में बीएसएल कंपनी कमिर्यो की रोजी

अंग्रेजों के शासन काल में 103 साल पहले एशिया के सबसे बड़े च

By JagranEdited By: Published: Sat, 06 Apr 2019 11:10 PM (IST)Updated: Sun, 07 Apr 2019 06:46 AM (IST)
खतरे में बीएसएल कंपनी कमिर्यो की रोजी

जागरण संवाददाता, राउरकेला : अंग्रेजों के शासन काल में 103 साल पहले एशिया के सबसे बड़े चूना पत्थर खदान बिसरा स्टोन लाइम कंपनी लिमिटेड की स्थापना हुई थी। 70 के दशक तक यह अच्छी हालत में थी। यहां से राउरकेला इस्पात संयंत्र के अलावा टाटा स्टील, दुर्गापुर, बर्णपुर समेत अन्य संयंत्रों में चूना पत्थर भेजा जाता था। तब यहां करीब 11 हजार से अधिक श्रमिक काम करते थे। बाद में राजनीतिक इच्छा शक्ति एवं प्रबंधन की गलती से इसकी हालत दयनीय होती चली गई और आज हालत यह है कि यहां मात्र 620 कर्मचारी ही काम कर रहे हैं जिनको 17 महीने का वेतन नहीं मिला है।

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बर्ड ग्रुप अंतर्गत डोलोमाइट एवं चूना पत्थर की खुली खदान बिसरा स्टोन लाइम कंपनी लिमिटेड के लिए जमशेदपुर से राउरकेला होकर बीरमित्रपुर तक रेल लाइन बनाने के साथ ही बिजली चालित ट्रेन की व्यवस्था की गई थी। बर्ड ग्रुप की इस कंपनी को 1968 में सरकार के अधीन लाने के लिए राज्यसभा सदस्य व ट्रेड यूनियन नेता विनय कुमार महंती ने प्रयास किया था। इसके बाद इस खदान को टाटा स्टील के अधीन करने का प्रयास हुआ पर सफलता नहीं मिली। उन्होंने पूर्व मुख्यमंत्री आरएन सिंह देव से मिलकर इसे राज्य सरकार के अधीन कराने का प्रयास किया। इसके लिए वे तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी एवं इस्पात मंत्री कुमार मंगलम से भी मिले। इसके बाद कंपनी के कर्मचारियों को उत्पादन तथा इससे मिले पैसे से ही वेतन मिलता था। कंपनी की हालत 2014 में अधिक खराब हो गई जब वन व पर्यावरण मंत्रालय ने खनन व पर्यावरण संबंधित दस्तावेज तथा खनन की सीमा एक लाख टन से घटाकर 50 हजार टन कर दी। अनुमति नहीं मिलने के कारण कुछ समय के लिए खदान में खनन एवं परिवहन बंद करना पड़ा था। इसके बाद इसे राष्ट्रीयकृत उपक्रम आरआइएनएल के अधीन करने का प्रयास किया गया पर रुपये के क्लीयरेंस को लेकर मामला उलझ गया।

एक्सपर्ट की राय :

आरआइएनएल जब कंपनी को लेना चाह रही थी तक क्लीयरेंस के लिए 80 करोड़ रुपये मांगा गया था जो अब बढ़कर 170 करोड़ हो गया है। पर्यावरण व खनन की अनुमति के लिए 16 करोड़ रुपये खर्च हुए हैं। यह राशि आइआरएनएल व आरएसपी से सूद पर ली गई थी। इसके एवज में हर महीने करीब 30 लाख सूद के रूप में माल की कीमत से काट ली जाती है। अब श्रमिकों के 17 महीने के वेतन के एवज में करीब 17.70 करोड़ बकाया है। राजनीतिक इच्छा शक्ति से ही समस्या का समाधान होगा।

- संदीप मिश्रा, महासचिव गांगपुर लेबर यूनियन।


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