दफ्तरनामा : शहर का कचरा नदी-नाले में जाने को मजबूर
सरकार ने करीब 30 करोड़ रुपये दे भी दिए थे लेकिन यह भी अतिक्रमण और विरोध की भेंट चढ़ गया।
अपनी खरकई व स्वर्णरेखा बाहर से बड़ी खूबसूरत दिखती है, लेकिन अंदर से मलहारिणी है। इतने बड़े शहर में कचरा निष्पादन संयत्र या इकाई का नहीं हो पाना, सब कुछ बयां कर देता है। इससे पहले खैरबनी में कचरा प्लांट बनाने के लिए खूब कवायद हुई थी। सरकार ने करीब 30 करोड़ रुपये दे भी दिए थे, लेकिन यह भी अतिक्रमण और विरोध की भेंट चढ़ गया। बीते माह शहर के चारों कचरा निष्पादन के जिम्मेदार आला हाकिम झुंड बनाकर खैरबनी गए थे। जब स्थानीय लोगों को इसकी भनक लगी, तो दूसरे ही दिन वहां के लोग झुंड बनाकर हाकिमों को देखने आ गए। सैकड़ों महिला-पुरूषों ने जमशेदपुर अक्षेस कार्यालय का घेराव कर दिया। अक्षेस गेट के सामने आदिवासी नेताओं ने लाउडस्पीकर से ऐसा हड़काया कि अब हाकिम खैरबनी के नाम से ही घबरा जाते हैं। एक बार फिर शहर का कचरा नदी-नाले में जाने को मजबूर है।
साहब का फोन आते ही फूलने लगती सांस :
साहब का फोन आते ही बिजली विभाग के पदाधिकारियों की फूलने लगती है सांस। हाल ही में प्रतोष कुमार ने जमशेदपुर में विद्युत महाप्रबंधक का पद संभाला है। साहब का काम करने का तरीका अब तक के जीएम से बिलकुल भिन्न हैं। साहब अपना काम पर विश्वास रखते हैं। कार्यपालक अभियंताओं को हिदायत देते हुए राजस्व वसूली का टारगेट दे देते हैं। बड़े साहब का आदेश मिलते ही छोटे साहब को टारगेट पूरा करने की कवायद में जुट जाना पड़ता है। यही नहीं साहब ने रविवार को भी कार्यालय खोलने का आदेश दे दिया है। अब तो हालत ऐसा हो गया है कि जैसे ही बड़े साहब का फोन आता है, छोटे साहब के माथे पर पसीना ऑटोमेटिक निकलने लगता है। छोटे साहब के चेहरे पर पसीना देखकर बाबुओं को समझते देर नहीं लगता कि बड़े साहब का ही फोन होगा।
डीसी आफिस के दर्शन ही पर्याप्त :
डीसी आफिस पर धरना-प्रदर्शन पहले भी होते थे, लेकिन अब उसका स्वरूप बदल गया है। कोरोना काल में तो यह लुप्तप्राय हो गया था। थोड़ी सी ढील मिलने के बाद दुलाल टाइप प्रदर्शन भी खूब हुए। इसमें भाजमा, भाजमो, कांग्रेस, झामुमो सभी शामिल थे। केस पर केस खाते गए, लेकिन किसी के कान पर जूं नहीं रेंगी। इसमें कुछ शरीफ या हड़कू टाइप की संस्थाएं भी प्रदर्शन करने पहुंचती रहीं, लेकिन वे गेट के बगल में रखी शिकायत पेटी का दर्शन करके निकल जाते हैं। पेटी में शिकायत-गुस्सा गिरान के बाद एक नजर जिला समाहरणालय के बोर्ड को भी एक बार जरूर निहारते हैं। इसके बाद गेट के बाहर इस तरह से फोटो सेशन सेशन होता है, ताकि उसमें डिप्टी कलक्टर के आफिस का सीन भी आ जाता है। कुछ तो बाहर की दीवार पर बनी पेंटिग के पास भी हाथ में फोटो खिचाकर संतुष्ट हो जाते हैं।
फुटपाथ से हटाया तो पक्की जगह मिलेगी :
साकची बाजार से फुटपाथी दुकानदारों को हटाने की प्रैक्टिस करीब 20 वर्ष से तो चल ही रही है। इसी चक्कर में चार-पांच पक्के मार्केट बन गए, जहां फुटपाथी दुकानदारों को बसाया गया है। एक बार पक्का दुकान बनने के बाद कुछ दिन तक साकची बाजार में सन्नाटे जैसा माहौल बनता है, फिर धीरे-धीरे उससे ज्यादा फुटपाथी दुकानदार बाजार में बस जाते हैं। एक तरह से फुटपाथी दुकानदार भी मनाने लगे हैं कि सरकार थोड़ा जोर लगाए, तो पक्का जगह मिल जाए। इस बार तो पूरा जोर लगा ही था। मजिस्ट्रेट, रैफ, क्यूआरटी क्या नहीं तैनात हुए। बाजार में खदेड़ा-खदेड़ी भी खूब हुई, लेकिन जब पक्की जगह की मांग तेज हुई तो खदेड़ने की प्रैक्टिस भी बंद हो गई। ऐसा लगा कि कहीं सरकार को पक्की जगह देनी पड़ेगी तो उससे अच्छा होगा कि इन्हें अपने रहमोकरम पर ही छोड़ दिया जाए। अब दोनों निश्चित हो गए हैं।