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पानी राखिए,बिन पानी सब सून!

राजेंद्र सिंह मेरठ। रहीम ने मनुष्य के संदर्भ में जिस पानी शब्द का उपयोग किया था उसका संदर्भ है-इज्जत, लेकिन अब तो जान पर ही बन आई है। विस्फोटक गति से बढ़ रही आबादी, प्राकृतिक संसाधनों के दोहन ने मनुष्य के सामने पानी का संकट खड़ा कर दिया है। कुदरत के निजाम में इंसानी दखल ने मौसम के पूरे संतुलन को झकझोर दिया है।

By Edited By: Published: Thu, 27 Sep 2012 12:14 PM (IST)Updated: Thu, 27 Sep 2012 01:09 PM (IST)
पानी राखिए,बिन पानी सब सून!

राजेंद्र सिंह, मेरठ। रहीम ने मनुष्य के संदर्भ में जिस पानी शब्द का उपयोग किया था उसका संदर्भ है-इज्जत, लेकिन अब तो जान पर ही बन आई है। विस्फोटक गति से बढ़ रही आबादी, प्राकृतिक संसाधनों के दोहन ने मनुष्य के सामने पानी का संकट खड़ा कर दिया है। कुदरत के निजाम में इंसानी दखल ने मौसम के पूरे संतुलन को झकझोर दिया है।

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बढ़ते वैश्विक तापमान से हिमपात में भारी गिरावट को पर्यावरणविद् पर्यावरण के विनाश का संकेत मान रहे हैं। ग्लेशियर भी पीछे की ओर खिसक रहे हैं और अगर ये इसी गति से खिसकते रहे तो वेस्ट यूपी की जीवन रेखा माने जाने वाली गंगा और यमुना विलीन हो जाएगी।

मुजफ्फरनगर केगाव अतवाड़ा से निकलकर कन्नौज तक सैकड़ों किमी सफर तय करने वाली काली नदी मृत हो चुकी है। कन्नौज में तो यह नदी गंगा को भी मैली कर रही है। सहारनपुर से चलकर मुजफ्फरनगर होते हुए हिंडन में मिलने वाली काली नदी वेस्ट, हिंडन व कृष्णी भी मरणासन्न हैं। महाभारत में मृत्युशैया पर भीष्म पितामह ने कहा था कि पानी दुर्लभ है और परलोक में भी इसका मिलना अत्यंत कठिन है।

उनकी यह बात वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भी एकदम खरी उतर रही है। तत्कालीन संस्कृति का ध्वजवाहक गंगा-यमुना दोआब जल संपदा की नई चुनौती से जूझ रहा है। भूगर्भ जल भंडारों के निरंकुश दोहन से अधिकाश पानी के कुएं और हैंडपंप सूख चूके हैं। इस इलाके के ज्यादातर विकास खंडों में 65-90 प्रतिशत भूगर्भ जल दोहन किया जा रहा है। जल पुरूष राजेंद्र सिंह व नीर फाउडेशन की शोध रिपोर्ट से भी स्पष्ट है कि यदि पानी का दोहन ऐसे ही हुआ तो वर्ष 2025 तक धरती की कोख सूख जाएगी। इस समय मेरठ-सहारनपुर मंडल में 15-80 मीटर तक खिसक चुकी जलधारा अगले दशक में ट्यूबवेल की पहुंच जाएगी। अगर यही प्रवृत्ति बनी रही तो यह क्षेत्र धीरे-धीरे रेगिस्तान में तब्दील हो जाएगा। मेरठ-मुजफ्फरनगर गंगा के समतल एल्यूवियम का भूभाग है। इस क्षेत्र में जल निगम व राजकीय नलकूप विभाग ने बोरिंग कराई तो पता चला कि 300-352 मीटर पर मीठे जल का भंडार है। क्षेत्र में कहीं पर सात तो कहीं पर भूगर्भ जल की 12 लेयर हैं। भूजल दोहन के कारण एक लेयर समाप्त हो गई है। मेरठ में ही 104 ऐसी मलिन बस्तिया हैं, जहा के लोगों को स्वच्छ पेयजल नही मिल रहा है। शामली, कैराना, बुढ़ाना तहसील क्षेत्र, बागपत,गाजियाबाद,अलीगढ़ व आगरा में 80 मीटर की गहराई तक जल ही नही है। इस क्षेत्र में रेन वाटर हार्वेस्टिंग के प्रति उदासीनता का जो आलम है, उससे भी यह साफ है कि न सरकार पानी का मोल समझ रही है, न जनता। विडंबना है कि जल संरक्षण के लिए 2001 में प्रदेश में इसे लागू तो कर दिया गया,लेकिन तब से अब तक सरकारी आदेशों की औपचारिकता ही निभाई जाती रही है। यह स्थिति तब है जब पश्चिम यूपी में 76 विकास खंड अतिदोहित ओर क्रिटिकल हैं। मेरठ, गौतम बुद्ध नगर, गाजियाबाद, सहारनपुर आदि तमाम बड़े शहरों में सिर्फ चुनिंदा बहुमंजिले भवनों में ही रेन वाटर हार्वेस्टिंग की व्यवस्था की गई है। नोएडा व मेरठ की करीब 9 हजार हजार फैक्ट्रियों में से 305 ने ही इसकी गंभीरता समझी। यह उदासीनता तब है जबकि गौतमबुद्ध नगर पिछले साल ही भूगर्भ जल के नजरिए से सेमी क्रिटिकल जोन घोषित कर दिया गया। वैज्ञानिक इस बात पर जोर देते रहे हैं कि गंगा-यमुना बेसिन के शहरों में यदि जल संरक्षण पर ध्यान दिया जाए तो वहा जलस्तर को नीचे जाने से रोका जा सकता है, लेकिन इन दोनों नदियों के किनारे बसे वेस्ट यूपी के अधिकाश शहरों में यह आदेश सख्ती से लागू नही हो रहा है।

गौरतलब है कि तीन सदी पहले एडम स्मिथ ने गैर-हस्तक्षेपकारी राह के जरिए दुनिया में सबके लिए असीम समृद्धि की सोच जाहिर की थी। उनका कहना था कि प्रकृति ने कंजूसी और सजगता से नेमत बख्शी है, संसाधन सीमित हैं। वर्तमान में बढ़ती आबादी और उसके साथ बढ़ रही बीमारी व जल संकट ने एडम स्मिथ को पुष्ट ही किया है। स्टेट आफ द इन्वायरमेन्ट रिपोर्ट-2009 के अनुसार देश का पर्यावरण बिगड़ रहा है। हवा, पानी और जमीन तीनों ही खतरनाक रूप से प्रदूषित हो रहे हैं। पूर्ववर्ती एनडीए सरकार ने देश की कई नदियों को जोड़ने की दिशा में पहल की थी पर मौजूदा यूपीए सरकार ने इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया। जलसंकट एक गंभीर समस्या है।

देश की कुल जमीन में 45 प्रतिशत जमीन खराब (डिग्रेडेड) हो चुकी है। देश के सभी शहरों में हवा का प्रदूषण भी बढ़ रहा है और वनस्पतियों तथा पशु पक्षियों की प्रजातिया भी तेजी से विलुप्त हो रही हैं। बंजर जमीनों का दायरा भी बड़ा हो रहा है। रही सही कसर जगह-जगह होने वाले जल भराव के कारण पूरी हो रही है। 45 फीसदी जमीन अनुत्पादक हो गई है। गंगा-यमुना दोआब पर इसका सर्वाधिक असर पड़ रहा है। वेस्ट यूपी की अधिकाश नदिया मर चुकी है। यमुना प्रदूषित है जबकि गंगा अपनी ससुराल में मैली हो रही है। ऐसे में उप्र सरकार को चाहिए कि वह उ.प्र. नदी नीति लागू करे। नदी को एक जीवंत प्रणाली मानते हुए इसे 'नेचुरल पर्सन' का संवैधानिक दर्जा दे, जिससे नदियों को वे सभी अधिकार हासिल हो सकें, जो एक व्यक्ति को संवैधानिक तौर पर हासिल हैं। उद्गम/प्रदेश में प्रवेश बिंदु से नदी के अंतिम छोर/प्रदेश सीमा छोड़ने तक प्रत्येक नदी के पारिस्थितिकीय प्रवाहों को आकलित व सुनिश्चित किया जाए। नदी और उसकी पारिस्थितिकी के प्रत्येक अंग का जीवन सुनिश्चित हो सके। प्रत्येक नदी की भूमि का चिन्हीकरण व सीमाकन कर यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि उसका भू उपयोग किसी भी स्थिति में बदला न जाए जिससे नदिया आजादी से बह सकें।

शोधित-अशोधित किसी भी प्रकार के ठोस अपशिष्ट को नदियों में डाले जाने पर पूर्ण प्रतिबंध हो ताकि नदियों की प्रदूषित मुक्ति से समझौते की कोई गुंजाइश बचे ही न और प्रदूषण मुक्ति के नाम पर बर्बाद हो रहा राष्ट्र का ढेर सारा धन भी बचे। ऐसा होने से नालों व नालियों का पानी बिना शोधित नदी में नही जा पाएगा। बाढ़ की समस्या से निजात मिलेगी। सिंचाई को अच्छा पानी मिलेगा। प्राकृतिक जल स्त्रोत जैसे तालाब व कुएं से भी अवैध कब्जा जाए। फसल चक्र अपनाने के लिए किसानों को जागरूक किया जाए। जल संरक्षण के लिए नयी भूगर्भ जल नीति में ठोस काननू बनाए जाए। वर्षा जल संरक्षण के लिए गाव में रिचार्ज वैल व चेकडैम बनाए जाए।

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