पूरी नहीं हुई जन अपेक्षाएं
भारतीय संसद के साठ सालो की यात्रा उपलब्धियो और चुनौतियो की दृष्टि से मिलीजुली रही है। संसद की स्थापना के समय देश के आम और गरीब लोगो की जो अपेक्षाएं थी वह शायद ही पूरी हो सकी है।
भारतीय संसद के साठ सालों की यात्रा उपलब्धियों और चुनौतियों की दृष्टि से मिलीजुली रही है। संसद की स्थापना के समय देश के आम और गरीब लोगों की जो अपेक्षाएं थीं वह शायद ही पूरी हो सकी हैं। शहरों में जहां आधुनिक सुख-सुविधाओं का विकास हुआ है, प्रति व्यक्ति आय बढ़ी है, रेलवे, हवाई जहाज और मेट्रो जैसी सुविधाएं हैं वहीं यदि दूर-दराज के क्षेत्रों की बात करें तो हालात 60 वर्ष पहले जैसे हैं। आर्थिक विषमता की खाई भी पहले से ज्यादा है। जाहिर है संसद से देश को जो अपेक्षाएं थीं वह पूरी नहीं हो सकी हैं। संसद के शुरुआती वर्षो में अधिकांश सदस्य विदेशों से पढ़े-लिखे और बड़े घरों से थे। जाहिर है वह अच्छे भाषण दिया करते थे, सदन के कायदे-कानूनों और शिष्टाचार का बखूबी पालन करते थे और बहस में बढ़चढ़कर भाग लिया करते थे, लेकिन उनमें से अधिकांश को गांव के आम लोगों की तकलीफों का पता नहीं होता था और लोग भी बहुत कम पढ़े-लिखे थे जिस वजह से उनमें जागरूकता कम थी और उन्हें संसद में क्या कुछ हो रहा है इसका पता नहीं होता था। आज स्थिति में बदलाव आया है। अब संसद में जो प्रतिनिधि आ रहे हैं वह बड़ी-बड़ी आदर्शवादी बातों के बजाय आम लोगों की समस्याओं और शिकायतों को संसद में जोरशोर से उठाते हैं। दरअसल इन्हें पता है कि दोबारा चुनकर तभी आएंगे जब इलाके के लिए कुछ करेंगे। इस क्रम में कई बार लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए सम्मानित सदस्य सदन के शिष्टाचार और प्रक्रियाओं को भी भूल बैठते हैं। इन समस्याओं से निपटने और संसदीय कार्यवाही को सुचारू बनाने के लिए केवल कठोर नियम-कानून काफी नहीं होंगे इसके लिए सभी दलों को मिल-बैठकर रास्ता निकालना होगा, क्योंकि संबंधित पार्टी के मुखिया की सहमति के बिना सदस्य अशिष्ट व्यवहार नहीं कर सकते। राजनीति में बढ़ते अपराधीकरण के बावजूद संसद में अभी भी अच्छे लोगों की संख्या बहुतायत में है। संसद सदस्यों के साथ-साथ अब राज्यसभा की सीटों तक का क्रय-विक्रय एक बड़ी चुनौती है। इसकी वजह धनबल और बाहुबल को महत्व मिलना है। ऐसे लोगों के कारण ही संसद की गरिमा और उसके प्रति लोगों का विश्वास कमजोर हो रहा है।
यदि हम विधायिका के कर्तव्य निर्वहन की बात करें तो संसद के शुरुआती वर्षो में हमारी समस्याएं सामाजिक-आर्थिक किस्म की थीं। इस कारण भूमि सुधार, प्रिवीपर्स, दहेज, बाल विवाह जैसी समस्याओं पर संसद का 50 प्रतिशत समय लगता था और बाकी समय में रेल बजट और आम बजट आदि पर चर्चा होती थी। उस समय संपत्ति के अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, मूल अधिकार, नीति-निर्देशक सिद्धांतों को लेकर काफी बहस हुई। समय बदलने के साथ आधुनिक विधानों पर बल दिया गया जिनमें दल-बदल कानून, सूचना अधिकार कानून, श्रम कानून, पुलिस सुधारों आदि मुख्य हैं। इनमें पंचायत राज विधेयक को एक बड़ी सफलता माना जा सकता है, लेकिन अभी भी तमाम चुनौतियां हैं जिनको पूरा किया जाना शेष है। इनमें भ्रष्टाचार को रोकने के संदर्भ में लोकपाल कानून और महिला आरक्षण का मुद्दा मुख्य है। मेरी नजर में आज संसद के सामने जवाबदेही, पारदर्शिता और सरकारों की स्थिरता का सवाल सबसे महत्वपूर्ण है। आज नेहरू-इंदिरा के समय वाला एकदलीय युग खत्म हो चुका है और गठबंधन सरकारों का दौर है। गठबंधन सरकारें जवाबदेही की दृष्टि से तो ठीक हैं, लेकिन इनके अस्थिर होने के कारण केंद्र और राज्यों में बार-बार चुनाव देश के लिए ठीक नहीं। पिछले 10-15 वर्षो में दो-तीन वर्षो के अंतराल में एक के बाद एक हुए चुनाव इसका प्रमाण हैं। इसका रास्ता हमें निकालना होगा।
यदि हम दूसरे देशों की तुलना में देखें तो शुरुआती वर्षो में शांतिपूर्वक सत्ता हस्तांतरण और चुनाव प्रक्रिया में सभी दलों का विश्वास एक बड़ी उपलब्धि है। चुनाव आयोग, सूचना आयोग, वित्त आयोग जैसे संस्थाओं का मजबूत होना भी अच्छी बात है। आज बिना बहस के बजट और कई विधेयकों को पारित कर दिया जाता है जिस पर चिंता भी जताई जाती है। संसद का कामकाज अब सदन की बजाय समितियों अथवा मिनी हाउस द्वारा होने लगा है। संसदीय परंपरा में एक बड़ी गिरावट यह आई है कि अब प्रधानमंत्री राज्यसभा से हो रहे हैं जिन्हें हाईकमान से नियंत्रित किया जाता है। इसमें असंवैधानिक जैसा कुछ भी नहीं है, लेकिन प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के अप्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित होने के कारण लोकतंत्र की जीवंतता कम हो रही है।
-जीसी मल्होत्रा [पूर्व महासचिव, लोकसभा]
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