मऊ की मदर टेरेसा
केरल के अर्नाकुलम के छोटे से गाव मलयात्तूर में 18 अक्टूबर 1
मऊ। केरल के अर्नाकुलम के छोटे से गाव मलयात्तूर में 18 अक्टूबर 1941 को जन्मी नन्ही सी बालिका के बारे में कोई नहीं जानता था कि एक दिन सुदूर उत्तर भारत के एक छोटे से शहर मऊ में पीड़ितों की अनन्य सेविका बन लोगों की श्रद्धा का केंद्र बन जाएगी। उनके सेवा भाव व ममत्व को देख लोग उन्हें मऊ की मदर टेरेसा कहते हैं, असली नाम है डॉ. जूड। करीब 44 वषरें से नि:स्वार्थ भाव से मानव सेवा में तल्लीन, त्याग-समर्पण और सेवा की साक्षात प्रतिमूर्ति।
आज 71 वर्ष की अवस्था में वे संभवत: सबसे अधिक उम्र की ऐसी सक्रिय आब्स एवं गाइनी शल्य चिकित्सक हैं जो प्रतिदिन लगभग 200 से अधिक मरीज देखती हैं। पिछड़े पूर्वाचल के इस छोटे से जनपद में कर्मस्थल बने फातिमा अस्पताल के विकास का अधिकाश श्रेय उन्हीं के हिस्से में जाता है। उन्हें बचपन में महापुरुषों की जीवन गाथा ने प्रभावित किया और सेवा को धर्म मान लिया। माता-पिता को जब बेटी के फैसले की जानकारी हुई तो वे चिंतित हो उठे। उनके तमाम समझाने का कोई असर नहीं हुआ। दबाव बनाने के लिए मैट्रिक उत्तीर्ण करते ही पढ़ाई बंद करा दी। विवाह कर विदा कर देने की जुगत में लग गए लेकिन बालिका जूड ने अपनी जिंदगी प्रभु के नाम कर देने का अटल संकल्प सुनाया और परिजनों को झुकना पड़ा। उन्होंने 17 वर्ष की अवस्था में घर छोड़ दिया। मेडिकल सिस्टर्स आफ सेंट जोसेफ नामक संस्था से हायर सेकेंडरी की पढ़ाई पूरी की। लेडी हार्डिग मेडिकल कॉलेज, नई दिल्ली से एमबीबीएस किया और सेवा कार्य में जुट गई। बरेली व लखनऊ में कार्य करने के बाद 1975 में एमडी किया। संस्था की ओर से उन्हें जून 1977 में मऊ के फातिमा हेल्थ केयर सेंटर पर भेज दिया गया। उन दिनों यह अस्पताल एक कमरे में चलता था। यहा आने के बाद डा. जूड फिर यहीं की होकर रह गई। उन दिनों वे आसपास के जिलों की अकेली आब्स एवं गाइनी शल्य चिकित्सक थीं। लगभग दो दर्जन नन्स उनके संरक्षण में सब कुछ त्यागकर नि:स्वार्थ भाव से मानवता की सेवा में लीन हैं। वे संस्था से कुछ भी नहीं लेतीं, सब नि:स्वार्थ।
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