Lok Sabha Election: ये वो पश्चिम नहीं... यहां ध्रुवीकरण की परंपरागत तस्वीर हुई धुंधली, अब लोग भाईचारे के साथ करते हैं विकास की बात
पश्चिमी उत्तर-प्रदेश की यह नई और चौंकाने वाली सामाजिक राजनीति है। अस्सी और बीस के बंटवारे से थोड़ा अलग हटती हुई। जातियों में उभार है और राजनीतिक दल उसे और उभारने की कोशिशों में जुटे हुए हैं। ध्रुवीकरण की परंपरागत तस्वीर धुंधली हो रही है। यह अलग बात है कि मोदी ओर योगी का नाम इन सबसे ऊपर है। इस बदलते परिदृश्य पर राज्य संपादक (उत्तर-प्रदेश) आशुतोष शुक्ल की दृष्टि...
यह आश्चर्यजनक नहीं कि जिस पश्चिमी उत्तर प्रदेश में प्रधानमंत्री दो रैली और एक रोड शो कर चुके हैं, वहां पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव 13 अप्रैल को पहली बार पहुंचे और उन्होंने अब तक कुल तीन सभाएं कीं। ऐसा जानकर किया गया या अनायास ही हो गया, लेकिन परिणाम यह निकला है कि अली-बली और अस्सी-बीस के नारे जिस धरती को हर चुनाव में गरम कर देते थे और जिसकी आंच मध्य उत्तर प्रदेश और पूर्वांचल तक जाती थी, वहां इस बार अभी तक ध्रुवीकरण नहीं दिख रहा है और इसीलिए जातियों ने सिर उठा लिया है।
अखिलेश की ये सभाएं भी मुस्लिम क्षेत्रों में हुईं न कि हिंदू आबादी में। 2022 में अखिलेश के पीछे मुस्लिम युवाओं का हुजूम चल रहा था। शहर-शहर यह संख्या जितनी अधिक होती, हिंदू वोटों में उतनी ही प्रखर प्रतिक्रिया हो जाती। यही कारण था कि दूसरे मुद्दे पीछे छोड़कर हिंदू तब एकजुट हो गया था।
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इस बार अभी तक ऐसा नहीं हो सका है और इसीलिए मेरठ से लेकर शामली, कैराना और मुजफ्फरनगर तक या बरेली-मुरादाबाद कहीं भी आप वोटर से पूछकर देखिए, वह पाल, सैनी, प्रजापति, बिंद, गुर्जर, क्षत्रिय, ब्राह्मण, जाट, जाटव और कश्यप की बात करता मिलेगा। चुनाव का ऐसा दृश्य पूर्वांचल में हमेशा दिखता रहा है, लेकिन पश्चिम के लिए यह थोड़ा आश्चर्यजनक है।
यही कारण है कि सांसदों के व्यवहार और पांच वर्षों के उनके काम पर अब तीखे प्रश्न उठ रहे हैं। गठबंधन ने एक और पैंतरा बदला है। कैराना में इकरा हसन हों या मुरादाबाद में रुचिवीरा जैसे अन्य प्रत्याशी, वे हिंदू मतदाताओं में बहुत जा रहे हैं। वे मान रहे हैं कि अल्पसंख्यक मत तो उन्हें मिलना ही है और यदि बहुसंख्यकों में वे प्रभावी पैठ बना ले गए तो बढ़त ले लेंगे।
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2014 में “बोटी-बोटी काट’ देने जैसा बयान देने वाले इमरान मसूद सहारनपुर में हिंदुओं के बीच जाकर ‘रामकथा’ कह रहे हैं और देवबंद के त्रिपुर बाला सुंदरी मंदिर में शीश नवा रहे हैं तो इसके पीछे भी यही कारण है। अखिलेश अगर मुस्लिम मतदाता के साथ बहुत दिखने से बचे हैं तो बसपा प्रमुख मायावती ने 14 अप्रैल को सहारनपुर की अपनी पहली ही सभा में अनुसूचित जातियों और क्षत्रियों से एकजुट होने की अपील कर ली।
समाजशास्त्री इस नए जातीय समीकरण पर भले ही चकित होते रहें, मायावती ने यह दांव नाराज दिख रहे क्षत्रियों को अपने पाले में करने के लिए चला। इसीलिए मुजफ्फरनगर, कैराना, नगीना, मुरादाबाद, रामपुर और संभल में कांटे का चुनाव हो रहा है। तो क्या सारे दांव विपक्ष ही चल रहा है? कतई नहीं।
यह तय होना बाकी है कि ठाकुरों की बहुप्रचारित नाराजगी भाजपा से है या केवल प्रत्याशी विशेष सांसद संजीव बालियान से। मुजफ्फरनगर के महावीर चौक पर मिले सलेचन कुमार दलित हैं, लेकिन समर्थक फूल के। भाजपा प्रत्याशी की सबसे बड़ी ताकत प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और योगी की कानून व्यवस्था है और राम मंदिर तो मतदाता के मन में बहुत गहरे तक उतरा हुआ है ही।
खतौली में गंगनहर के किनारे बैठे हैं ब्रजेश और सत्येंद्र। चुनाव पर लंबी चर्चा के बाद दोनों बोले, ‘यह जो सड़क है न (मुरादनगर जाने वाली), गुंडे बदमाशों के कारण इस पर शाम छह बजे के बाद लोग निकल नहीं सकते थे। यह बंद कर दी जाती थी, लेकिन अब योगी ने माहौल बदल दिया है।’
प्रधानमंत्री मोदी उनकी पहली पसंद हैं। उनकी ही राय खतौली चौराहे पर बैठे विजय सैनी की भी है। नीरज जटौली हों या कैराना के बदलूगढ़ के देवीसिंह, मोदी उनके लिए चुनाव में पहला नाम हैं। क्या कैराना से पलायन अब मुद्दा नहीं रहा?
देवीसिंह के साथी ओमपाल कश्यप बोले, ‘है मुद्दा। कैसे भूल जाएं कि रात को हमें बल्लम रखकर सोना पड़ता था।’ किसान नेता अमरदीप पवार उत्तर प्रदेश में कानून के राज से संतुष्ट दिखे और यह भी कह गए कि चाहे जो हो, ‘सरकार तो जी फूल वालों की बन रई जी।’ स्थायित्व के साथ यह भाव सब तरफ प्रबल है कि ‘सरकार तो भाजपा ही बनावेगी।’