दहेज के रावण से हारी बिटिया
हसनपुर क्षेत्र का गांव है बावनखेड़ी। वही, जहां की शबनम ने प्यार में अंधी होकर अपने मां-बाप समेत सात का कत्ल कर दिया था। उसी बावनखेड़ी में एक बेटी ने बाप के कंधों पर पड़ा दहेज और शादी का बोझ उतारने के लिए खुद को फना कर दिया। उसका रिश्ता दहेज की मांग न पूरी होने के कारण टूट गया था। बाप की बे
अमरोहा, [राशिद चौधरी]। हसनपुर क्षेत्र का गांव है बावनखेड़ी। वही, जहां की शबनम ने प्यार में अंधी होकर अपने मां-बाप समेत सात का कत्ल कर दिया था। उसी बावनखेड़ी में एक बेटी ने बाप के कंधों पर पड़ा दहेज और शादी का बोझ उतारने के लिए खुद को फना कर दिया। उसका रिश्ता दहेज की मांग न पूरी होने के कारण टूट गया था। बाप की बेबसी देख बेटी इतनी दुखी हुई कि डोली के सपने छोड़ दिए। शायद, यह सोचकर कि बाप दहेज की भारी डोली भले ही न उठा सकें, अर्थी तो उठा ही लेंगे। आखिरकार बाप को यही करना पड़ा, दशहरे के दिन दहेज का रावण उनकी बेटी को मार गया और दे गया डोली के बदले अर्थी।
पढ़ें: दहेज हत्या में उम्रकैद से कम कुछ भी नहीं
जिसने भी घटना के बारे में सुना, रो पड़ा। कोमल मन पर दहेज की मांग कितनी चोट पहुंचाती है, यह इसका दिल दहला देने वाला उदाहरण भी है। गांव में पैंसठ वर्षीय बुजुर्ग का परिवार रहता है। उनकी छह बेटियां हैं। एक शादीशुदा बेटा दिल्ली में मजदूरी कर परिवार का जैसे-तैसे पेट भरता है। इस पिता के कंधे चार बेटियों की डोली का बोझ उठा चुके हैं, मगर अब झुके-झुके से हैं, इसलिए जल्दी-जल्दी अपनी बाकी जिम्मेदारियां भी पूरी करना चाहते हैं। छह महीने पहले अपनी पांचवीं बेटी का निकाह क्षेत्र के ही गांव गंगवार में तय किया। शनिवार को बूढ़ा बाप निकाह की तारीख पक्की करने गंगवार पहुंचा। वहां सब कुछ बदल चुका था। जिसे वो अपना दामाद बनाने जा रहे थे, उसने दहेज में बाइक के बगैर निकाह से इन्कार कर दिया। रोया-गिड़गिड़ाया पर बात नहीं बनी। रिश्ता टूट गया। मुंह लटकाए घर पहुंचे तो बेटी को माजरा भांपने में देर नहीं लगी। बूढ़े पिता की आंखों में लाचारी देख पता नहीं, वह रात भर सोयी या नहीं। पर, रविवार सुबह वह हमेशा के लिए सो गयी, इतनी गहरी नींद में जहां न बाप की लाचारी के सपने आते, न दहेज लोभी पहुंच पाते हैं।
तड़के करीब आठ बजे जहर खाकर आत्महत्या कर ली। घरवाले रोये और फिर धीरे से उसे उठाया, अर्थी में लिटाया और चुपचाप कब्रिस्तान में ले जाकर दफन कर दिया। बेटी की डोली में ज्यादा बोझ होता है या अर्थी में, बाप के पथराए चेहरे और ढले कंधों पर साफ दिख रहा था। चार बेटियों की डोली उठाने में वे उतने नहीं झुके थे, जितने एक बेटी की अर्थी ने झुका दिए। इससे भी ज्यादा अफसोस ये दिखा कि समाज और कानून की किताबों में गरीब के ये दर्द दर्ज ही नहीं होते। इसलिए न थाने में कोई लिखा-पढ़ी हुई, न ही समाज ने दशहरे के दिन दहेज के इस रावण को खत्म करने के लिए बैठाई कोई पंचायत।
मोबाइल पर ताजा खबरें, फोटो, वीडियो व लाइव स्कोर देखने के लिए जाएं m.jagran.com पर