अब भूलने की बीमारी व स्मृतियां कमजोर होने जैसे रोगों से भी मिल सकेगा छुटकारा
दिल्ली विवि के जेनेटिक विभाग के प्रोफेसर और छात्रों ने किया सफल शोध, भूलने की बीमारी व स्मृतियां कमजोर होने जैसे रोगों से भी मिल सकेगा छुटकारा
नई दिल्ली [राहुल मानव]। अब जल्द ही मस्तिष्क की बीमारियों का इलाज कैंसर व डायबिटीज की दवाइयों से संभव हो सकेगा। दिल्ली विश्वविद्यालय के जेनेटिक विभाग के प्रोफेसर और छात्रों ने इस पर शोध किया है। इसमें आठ साल का समय लगा है। इंसानी मस्तिष्क में तंत्रिका कोशिकाएं होती हैं। जब यह कोशिकाएं नष्ट हो जाती हैं तो स्मृति खोने व शरीर का संतुलन न होने जैसी बीमारियां होने लगती हैं। डीयू के प्रोफसर और छात्रों ने इसका इलाज ढूंढ़ निकाला है। प्रोफेसर और छात्रों ने न सिर्फ सफल परीक्षण किया है बल्कि इसके लिए दवाइयां भी तैयार की जा रही हैं। इस प्रणाली को पेटेंट भी कराया जाएगा।
जेनेटिक इंजीनियरिंग से हुई नई खोज डीयू के साउथ कैंपस के जेनेटिक विभाग के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. सुरजीत सरकार ने बताया कि इंसान के मस्तिष्क में बसल गैंगलिया होता है। इसमें तंत्रिका कोशिकाएं होती हैं। इससे हमारे शरीर के संतुलन में, सोचने समझने की शक्ति के साथ यादों को संजोए रखने में मदद मिलती है।
जेनेटिक म्यूटेशन के प्रभाव की वजह से यह कोशिकाएं कमजोर होने लगती हैं, जिससे इंसान को पॉलिग्लूटामिन रोग होने लगता है। इसी बीमारी का हिस्सा हनटिंग्टन जैसे रोग हैं। यह दिमाग की तंत्रिका कोशिकाओं को निष्क्रिय और बंद कर देती हैं। हमने जेनेटिक इंजीनियरिंग के जरिये परीक्षण करते हुए कैंसर व मधुमेह की दवाइयों को इस्तेमाल करते हुए हनटिंग्टन जैसी बीमारियों का इलाज करने की प्रणाली विकसित की है।
इनका रहा योगदान
इस शोध में डीयू के प्रोफेसर डॉ. सुरजीत सरकार, नवनीत सरकार, पीएचडी की छात्रा निशा, कृतिका राज, श्वेता टंडन, प्रगति, अकसा ने सफलता हासिल की है। भूलने व स्मृतियों के रोग का नहीं है कोई इलाज, नहीं बनी दवा असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. सुरजीत सरकार ने बताया कि भारत में करीब दस लाख मामले हर साल हनटिंग्टन रोग के सामने आते हैं। यह परिवार के लोगों में ज्यादा पाए जाते हैं, क्योंकि यह रोग डीएनए की वजह से ही होता है।
हनटिंग्टन रोग 45 साल के बाद होने लगता है। यह एक आनुवंशिक न्यूरोडीजेनेटिव डिसऑर्डर होता है। इसके होने से भ्रम, बैचेनी, व्याकुलता, स्मृति नियंत्रण का अभाव होने लगता है। यह रोग दस साल से लेकर 25 साल तक या जीवन भर तक भी रह सकता है। इसका कोई स्थाई इलाज नहीं है। अस्थायी तौर पर इसका इलाज दवाइयों से किया जाता है।