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अफगानिस्तान पर कब्जे के तीन सप्‍ताह बाद भी तालिबान ने बनाई केयरटेकर गवर्नमेंट, जानें- आखिर ऐसा क्‍यों

अफगानिस्‍तान पर कब्‍जे के तीन सप्‍ताह बाद भी केयरटेकर सरकार बनाने वाले तालिबान पर कई तरह के सवाल उठ रहे हैं। पहला बड़ा सवाल तो यही है कि एक स्‍थायी सरकार की जगह उसने इस सरकार का गठन क्‍यों किया है।

By Kamal VermaEdited By: Published: Wed, 08 Sep 2021 10:33 AM (IST)Updated: Wed, 08 Sep 2021 11:56 AM (IST)
अफगानिस्तान पर कब्जे के तीन सप्‍ताह बाद भी तालिबान ने बनाई केयरटेकर गवर्नमेंट, जानें- आखिर ऐसा क्‍यों
तीन सप्‍ताह बाद भी अफगानिस्‍तान में बनी तालिबान की केयरटेकर गवर्नमेंट

नई दिल्‍ली (जेएनएन)। अफगानिस्‍तान में अपनी सरकार का गठन करने के लिए तालिबान को तीन सप्‍ताह से अधिक का समय लगा है। इसमें भी सबसे खास बात ये है कि इस सरकार में मुल्‍ला याकूब का कहीं कोई नाम नहीं है। तीन सप्‍ताह के बाद भी तालिबान एक स्‍थायी सरकार बना पाने में पूरी तरह से नाकाम साबित हुआ है। ऐसे में कई सवाल उठ रहे हैं।   

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तालिबान ने इस केयरटेकर गवर्नमेंट की कमान हसन अखुंद के हाथों में सौंपी है। ये पूरी ही प्रक्रिया कई सवालों को जन्‍म भी दे रही है। इनमें पहला सवाल है कि तीन सप्‍ताह बाद भी केयरटेकर गवर्नमेंट क्‍यों बनी। दूसरा सवाल ये है कि बरादर या याकूब के हाथों में इसकी कमान क्‍यों नहीं गई, जबकि इनका ही नाम अब तक सामने आ रहा था। तीसरा एक अहम सवाल ये भी है कि क्‍या तालिबान जिस फार्मूले पर काम कर रहा है, वो सफल होगा भी या नहीं। इस केयरटेकर सरकार में बरादर और अब्‍दुल सलाम हनाफी को उप-प्रधानमंत्री का पद दिया गया है।

आपको बता दें कि पिछले कई दिनों से सरकार के गठन को लेकर तालिबान मंथन में जुटा था। लेकिन इसमें देरी होने से ये बात खुलकर सामने आ रही थी कि तालिबान के अंदर सरकार के गठन और इसके होने वाले मुखिया को लेकर आमराय नहीं बन रही है। विभिन्‍न समाचार एजेंसियों ने इस बात की जानकारी दी थी कि तालिबान के अंदर ही इसको लेकर घमासान मचा हुआ है। कुछ खबरों में हक्‍कानी गुट और तालिबान के बीच मनमुटाव की खबरों को भी हवा मिली थी।

हसन अखुंद को अफगानिस्‍तान की सत्‍ता के शीर्ष पर बिठाने से ये साफ हो गया है कि बरादर और याकूब दोनों के ही नाम पर सहमति नहीं बन सकी है। इसकी वजह शायद एक ये भी हो सकती है, क्‍योंकि याकूब बेहद कट्टर माना जाता है और बरादर को पाकिस्‍तान से अमेरिका के कहने पर ही छोड़ा गया था। इसलिए उसका झुकाव शायद अमेरिका की तरफ ज्‍यादा हो सकता है। वहीं, हसन अखुंद की बात करें तो वो तालिबान की शूरा का लंबे समय से प्रमुख है। तालिबान से जुड़े सभी फैसलों पर यही शूरा अंतिम मुहर लगाती है। हसन तालिबान के सबसे बड़े नेता अखुंदजादा का करीबी भी है।

तालिबान में जिस तरह से मनमुटाव सामने आ रहा है उससे इस सरकार या संगठन के शांतिपूर्ण तरीके से काम करने पर भी संशय है। तालिबान की अंदरूनी कलह में ये सरकार कितना समय गुजारेगी, ये कह पाना फिलहाल मुश्किल है। ऐसा भी हो सकता है कि स्‍थायी सरकार के न होने से और अंदरूनी कलह का फायदा कोई तीसरा उठा ले। यदि ऐसा होता है तो देश में न सिर्फ अस्थिरता और असुरक्षा बढ़ सकती है।  


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