हंगामा है क्यूं बरपा, प्रदर्शन में सिर्फ फैज की नज्म ही तो पढ़ी गई, देश में शुरू हो गई राजनीति
आज देश भर में पाकिस्तान के शायर फैज अहमद फैज की एक नज्म को लेकर चर्चा हो रही है। इसे धर्म से भी जोड़ दिया गया है।
नई दिल्ली [अनंत विजय]। पाकिस्तानी वामपंथी शायर फैज अहमद फैज एक बार फिर से चर्चा में हैं। ये चर्चा गैर साहित्यिक विवाद की वजह से शुरू हुई। इसमें साहित्य के कई विद्वान कूद गए और इसको एक अलग ही रंग देने की कोशिश शुरू कर दी।
आइआइटी कानपुर में नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ प्रदर्शन में फैज की वो नज्म पढ़ी गई जिसमें तख्त और ताज उछालने की बात तो है ही, अल्लाह के राज कायम होने की बात भी है। विरोध प्रदर्शनों में कई बार फैज की ये नज्म पढ़ी जाती रही है। आइआइटी प्रशासन ने कैंपस में इस प्रदर्शन की जांच की बात कही है।
जब जांच की घोषणा की जा रही थी तो एक प्रश्न आया कि क्या फैज के नज्म की भी जांच होगी। सभी पहलुओं की जांच की बात की गई। उसके बाद यह खबर आई कि आइआइटी इस बात की जांच करेगा कि फैज का नज्म हिंदू विरोधी या राष्ट्रविरोधी है या नहीं। सोशल मीडिया पर जब खबर वायरल हो गई तो आइआइटी ने साफ किया कि फैज के नज्म की जांच जैसी कोई बात नहीं है।
इस सफाई को इस मामले के फुटनोट की तरह भी नहीं देखा गया और तरह तरह की प्रतिक्रिया आनी शुरू हो गई। बगैर आइआइटी की सफाई पर ध्यान दिए तरक्की पसंद शायर जावेद अख्तर इसमें कूद गए और उन्होंने यह कह दिया कि फैज की शायरी को हिंदू विरोधी कहा जाना बेतुका और मजाक है। जावेद साहब से यह पूछा जाना चाहिए कि किसने फैज की कविताओं को हिंदू विरोधी करार दिया।
दरअसल काल्पनिक चीजों पर प्रतिक्रिया देने की प्रवृत्ति जावेद अख्तर जैसे तरक्कीपसंद या प्रगतिशील लेखकों के लिए आसान होता है। जो है नहीं उसके बारे में बोलो, उस पर इतनी गंभीरता से प्रतिक्रिया दो कि आम जनता में यह संदेश जाए कि कोई गंभीर मसला सामने आ गया है। इन तथाकथित प्रगतिशील लोगों की यह प्रविधि बहुत पुरानी हो गई है।
इस पूरे मसले को हवा देने के पीछे देश में इस तरह का माहौल बनाना था कि भारतीय जनता पार्टी और उसके समर्थक मुसलमानों के खिलाफ हैं और अब कविताओं को भी हिंदू मुस्लिम के चश्मे से देखा जाएगा। जावेद अख्तर ही क्यों, बड़े बड़े प्रगतिशील माने जानेवाले लेखकों तक ने इस पर अपनी प्रतिक्रिया दे डाली और परोक्ष रूप से सरकार को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की। जब सरकार को कठघरे में खड़ा करने की कोशिशें तेज होने लगीं तो सरकार के समर्थक भी पलटवार करने लगे। फैज की शायरी रणक्षेत्र बन गई। एक एक शब्द को लेकर तर्क-वितर्क और कुतर्क सामने आने लगे।
फैज की कविताओं को लेकर छिड़े इस संग्राम में उनके भारत भक्त होने की बात भी लोग कहने लगे। फैज को विभाजन के खिलाफ खड़े एक शायर के तौर पर भी प्रस्तुत किया जाने लगा। वर्ष 1947 के अखबारों में छपे उनके लेखों को आधार बनाकर, कुछ पंक्तियों को संदर्भ से काटकर फैज की छवि चमकाने की कोशिश की जाने लगी। इन अबोध फैज समर्थकों को यह नहीं पता कि फैज की शायरी अपना बचाव करने में सक्षम है। अंध समर्थकों ने फैज को तानाशाही के खिलाफ खड़े एक कवि के तौर पर पेश करना शुरू किया। जिया उल हक के दौर की बातें की जाने लगीं।
यह ठीक है कि फैज की कविता में विद्रोह और विरोध के स्वर मुखरता से प्रस्फुटित होते हैं, लेकिन जब फैज की व्यक्तिगत जिंदगी को लेकर उनकी साहित्यिक छवि को चमकाने की कोशिश की जाएगी तो फिर समग्रता में बात होनी चाहिए। फैज के 1965 के भारत पाकिस्तान युद्ध के दौर के लेखन को भी देखा जाना चाहिए या फिर जब वो 1971 के भारत पाकिस्तान युद्ध पर लिख रहे थे उसे भी देखा जाना चाहिए।
फैज अगर इतने ही क्रांतिकारी और तानाशाही विरोधी थे तो उनके कवि मन पर पूर्वी पाकिस्तान में पाकिस्तानी फौज के अत्याचार को लेकर किसी तरह की हलचल नहीं हो रही थी? फैज को जानने-समझने के लिए 1970 के आसपास के उनके लेखन को जिया उल हक के कार्यकाल में हुए दमन के विरोध के लेखन में मिलाकर देखा जाना चाहिए।
कवि भी काल और परिस्थिति से प्रभावित होता है। फैज भी थे। फैज, जुल्फिकार अली भुट्टो के दोस्त थे। जब उनको फांसी दी गई तो उनका कवि मन अपने दोस्त के लिए द्रवित हो गया और जब कवि मन द्रवित होता है तो कई बार विद्रोही हो जाता है। फैज भी हो गए। जिया उल हक की मौत के बाद क्या पाकिस्तान के हालात बदल गए या उसके बाद वहां फौज की तानाशाही कम हो गई? लेकिन फैज का विद्रोह जरूर कुंद हो गया। फैज बड़े कवि हैं, लेकिन उनको महामानव बनाने की जो कोशिश देश का प्रगतिशील खेमा कर रहा है वो उनकी राजनीति का हिस्सा है। साहित्य और शायरी से उनका कोई लेना-देना है नहीं।
फैज के बहाने एक बार फिर से गंगा-जमुनी तहजीब को लेकर चिंता जाहिर की जाने लगी। जबकि अगर हम इस गंगा-जमुनी तहजीब को साहित्य की चौहद्दी में परखने की कोशिश करें तो यह आधुनिक भारत का बहुप्रचारित धोखा है। आज फैज की शायरी पर लहालोट होनेवाले भी इस तथ्य और सत्य को स्वीकार करेंगे कि अगर फैज की कविताएं देवनागरी में ना छपी होतीं तो क्या वे इतने व्यापक हो पाते।
गालिब, मीर से लेकर जौन एलिया तक की शायरी अगर देवनागरी में नहीं प्रकाशित हुई होती तो क्या उनको इतनी लोकप्रियता मिल पाती? इसकी तुलना में इस बात पर भी विचार किया जाना चाहिए कि हिंदी के तमाम कवि लेखकों का उर्दू या फारसी में कितना अनुवाद हुआ।
उर्दू के विद्वानों ने निराला से लेकर मुक्तिबोध तक या दिनकर से लेकर मैथिलीशरण गुप्त तक तक कितने लेखकों या कवियों का अनुवाद अपनी भाषा में किया। इस पर चर्चा करने की जरूरत है। हिंदुस्तानी भाषा को राजनीति का औजार बनाने की कोशिश हिंदी और हिंदुस्तानी को लेकर भी की गई।
हिंदी को सांप्रदायिकता की और हिंदुस्तानी को धर्मनिरपेक्ष बताने की कोशिश हुई। हिंदी के खिलाफ हिंदुस्तानी को खड़ा करने की कोशिश पहले भी हुई और अब भी प्रगतिशीलता के झंडाबरदार बीच बीच में हिंदुस्तानी की बातें करने लग जाते हैं। हिंदी में दो लेखक हुए, एक राजा शिवप्रसाद सितारे-हिंदू और दूसरे भारतेंदु हरिश्चंद्र।
राजा शिवप्रसाद सितारे-हिंदू हिंदी और उर्दू को मिलाकर हिंदुस्तानी की पैरोकारी करते थे। दूसरे विद्वान भारतेंदु हिंदी को लेकर चले। शिवप्रसाद सितारे-हिंदू इतिहास के बियाबान के एक कोने में हैं, वहीं भारतेंदु की हिंदी आज भी सीना तान कर खड़ी है। हिंदुस्तानी का आंदोलन तो गांधी ने भी चलाया, पर उनका भी विरोध हुआ।
गांधी ने 18 मार्च 1920 को वीएस श्रीनिवास शास्त्री को लिखा- ‘हिंदी और उर्दू के मिश्रण से निकली हुई हिंदुस्तानी को पारस्परिक संपर्क के लिए राष्ट्रभाषा के रूप में निकट भविष्य में स्वीकार कर लिया जाए। भावी सदस्य इंपीरियल काउंसिल में इस तरह काम करने को वचनबद्ध होंगे जिससे वहां हिंदुस्तानी का प्रयोग प्रारंभ हो सके और प्रांतीय काउंसिलों में भी वे इस तरह काम करने को प्रतिज्ञाबद्ध होंगे (संपूर्ण गांधी वांग्मय खंड 17)।
गांधी जी जितनी मजबूती से हिंदुस्तानी का साथ दे रहे थे, हिंदी साहित्य सम्मेलन के सदस्य उतनी ही ताकत से उनका विरोध कर रहे थे। यह विरोध इतना बढ़ा था कि गांधी को 28 मई 1945 को सम्मेलन से अपना इस्तीफा देना पड़ा था। कांग्रेस पार्टी के अंदर भी हिंदी और हिंदुस्तानी को लेकर मत विभाजन हुआ था जिसमें हिंदी को बहुमत मिला था। बाद की कहानी तो सबके सामने है।
फैज के विवाद के बहाने से जो लोग गंगा जमुनी तहजीब की बात कर रहे हैं उनको यह समझना होगा कि राजनीति के लिए साहित्य की जमीन का उपयोग गलत है और इतिहास गवाह है कि जब जब ऐसा करने की कोशिश हुई है तो जनता ने खुद उनको हाशिए पर डाल दिया।