नई दिल्ली, जेएनएन। हिंदी भाषी क्षेत्रों की चर्चित कहावत है- जैसे देखो दुनिया की रीत, वैसे उठाओ अपनी भीत (दीवार)। किसी भी देश के विकास काल-क्रम के दौरान उसकी और उसके नागरिकों की जरूरत और कल्याण को ध्यान में रखते हुए नीतियां और कार्यक्रम बनाए जाते रहे हैं। आजाद होने के बाद देश की आर्थिक तरक्की को गति देने के लिए भी प्रभावी नीतियां बनीं, लेकिन लालफीताशाही और भ्रष्टाचार की जकड़न से उनका प्रभावी क्रियान्वयन नहीं संभव हो सका। देश के आर्थिक बदलाव के इतिहास में 1991 के उदारीकरण को मील का पत्थर माना गया। भारतीय बाजार दुनिया के लिए खुले। तमाम कारोबारी बाधाओं और जड़ता से मुक्ति पाई गई, लेकिन इस सुधार की प्रभावी परिणति पाने वाली नीयत नियंताओं में नहीं दिखी।
मेक इन इंडिया
हाल ही में मुंबई के एक कार्यक्रम में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा कि 1991 के आर्थिक सुधार अधपके थे, लेकिन 2014 में मोदी सरकार ने बुनियादी संस्थागत बदलाव शुरू करके गरीबों और पिछड़ों का ज्यादा ध्यान रखा। वित्त मंत्री की इस बात पर बहस खड़ी की जा सकती है, लेकिन इस सच्चाई को शायद ही कोई अर्थविद् खारिज करे कि नीतियों के कारगर क्रियान्वयन और भ्रष्टाचार के खात्मे को लेकर जो नीयत, संकल्प और प्रतिबद्धता इस सरकार ने दिखाई वह शायद ही कभी दिखी हो। हम दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था हो चुके हैं। भविष्य की चुनौतियां बड़ी हैं, तभी तो हाल ही में शंघाई शिखर सम्मेलन के मंच से प्रधानमंत्री मोदी ने भारत को मैन्युफैक्चरिंग का हब बनाने के अपने संकल्प से परिचय करा दिया। सिर्फ कथनी नहीं, मेक इन इंडिया जैसे कार्यक्रमों से सरकार दमदार आगाज भी कर चुकी है। इस नीति के आगाज में नीयत है, संकल्प है और प्रतिबद्धता भी। ऐसे में भारत को बुलंदी पर पहुंचाने के लिए अगले कुछ दशकों में जरूरी नीतियों और कदमों की पड़ताल आज हम सबके लिए बड़ा मुद्दा है।
1947 में आर्थिक मोर्चे पर स्थिति बिगड़ी
आनन-फानन में उठाए गए कदम 1991 में पानी सिर से ऊपर पहुंच गया था। भुगतान संकट से बचने के लिए सरकार को सोना गिरवी रखना पड़ा। तब तत्कालीन पीवी नरसिंह राव सरकार ने आर्थिक सुधारों की दिशा में कदम उठाने का फैसला लिया। देश को खुली अर्थव्यवस्था बनाने का फैसला लिया गया। एक ओर बजट में उदारीकरण और वैश्वीकरण को अपनाने की बात कही गई, तो दूसरी ओर नई औद्योगिक नीति भी लाई गई। भारत में अंग्रेजों के आने और ब्रिटिश सत्ता के काबिज होने से पहले हम दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था थे। ब्रिटिश शासन आने के बाद लूट का दौर शुरू हो गया। 1947 में स्वतंत्रता के समय तक आर्थिक मोर्चे पर स्थिति बहुत ज्यादा बिगड़ चुकी थी। स्वतंत्रता के तुरंत बाद भी सरकार ने आर्थिक मोर्चे पर नीतियों को उस तरह नहीं संभाला, जिसकी उस समय आवश्यकता थी।
नहीं उठाए गए सधे कदम स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देश को आर्थिक मोर्चे पर कुछ सधे हुए और सतर्क कदम उठाने की आवश्यकता थी, लेकिन ऐसा नहीं हो पाया। ऐसा नहीं है कि इस जरूरत को समझा नहीं जा रहा था, लेकिन सरकार के मोर्चे पर पहल नहीं की गई। आर्थिक नीतियों को लेकर चक्रवर्ती राजगोपालाचारी का प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू से मतभेद भी हो गया था। धीरे-धीरे स्थिति यह हो गई कि 1965 में तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री को देश की जनता से एक दिन उपवास की अपील करनी पड़ी, ताकि खाद्यान्न संकट का सामना किया जा सके।
आमदनी अठन्नी और खर्चा रुपैया
मुद्रा अवमूल्यन का गलत निर्णय 1966 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सरकार ने रुपये के अवमूल्यन का फैसला िकया था। ऐसा निर्यात बढ़ाने के उद्देश्य से किया गया था, लेकिन इससे महंगाई ने और जोर पकड़ लिया। 1970 और उसके बाद के कुछ साल विश्व में अत्यधित मुद्रास्फीति के लिए जाने जाते हैं। इसे ग्रेट इन्फ्लेशन भी कहा जाता है। इस संकट ने दुनियाभर की सरकारों को सचेत कर दिया था। हालांकि भारत में घरेलू मोर्चे पर कोई सटीक कदम नहीं उठाया जा सका।
आमदनी अठन्नी और खर्चा रुपैया 1985 आते-आते देश की आर्थिक स्थिति बहुत खराब हो चुकी थी। 1989 में आइएमएफ ने चेतावनी भी दी थी। फिजूलखर्ची के कारण देश में भुगतान का संकट पैदा हो गया था। केंद्र में लगातार अस्थिर सरकारों का दौर था। संकट पर आंख बंद कर लेने की रणनीति से स्थिति बिगड़ती गई। अंतत: खजाने की हालत की परवाह किए बिना खर्च की आदत 1991 में एक डरावने रूप में हमारे सामने आई। दूसरी ओर चीन और अन्य एशियाई देशों ने हमसे पहले ही अपने यहां राजकोषीय और ढांचागत बदलाव के कदम उठा लिए थे।
नहीं मिल पाया अर्थव्यवस्था को पूरा लाभ इस बात में कोई संदेह नहीं है कि 1991 में किए गए आर्थिक सुधार देश के लिए ऐतिहासिक थे। लेकिन, अस्थिरता और राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी ने देश को इनका पूरा लाभ नहीं लेने दिया। घरेलू मोर्चे पर सुधारों की दरकार बनी रही। राजनीतिक रूप से चुनौतीपूर्ण होने के कारण इस दिशा में कोई सरकार निर्णय नहीं ले पाई।