क्या है राजद्रोह कानून, इतिहास से वर्तमान तक क्या बदला; कानून की वैधता को क्यों चुनौती दे रहीं याचिकाएं?
भारत में पुलिस भारतीय दंड संहिता यानी आईपीसी की धाराओं में आरोपियों के खिलाफ कार्रवाई करती है। IPC की धाराओं के तहत अदालत में आरोपियों के खिलाफ मुकदमें चलते हैं। तो आइए पहले जानतें हैं कि आखिर IPC क्या होता है।
नई दिल्ली, ऑनलाइन डेस्क। Sedition law : किसी राज्य, शहर अथवा क्षेत्र में शांति और व्यवस्था बनाए रखने के लिए कई सारे कानून बनाए गए हैं। यह कानून अपराधों को कम करने के साथ नागरिकों को सुरक्षा और न्याय प्रदान करता है। इसमें से एक राजद्रोह कानून है। भारतीय दंड संहिता (IPC) के सेक्शन 124A में राजद्रोह कानून का उल्लेख किया गया है।
क्या है भारतीय दण्ड संहिता
भारत में पुलिस भारतीय दंड संहिता यानी आईपीसी की धाराओं में आरोपियों के खिलाफ कार्रवाई करती है। IPC की धाराओं के तहत अदालत में आरोपियों के खिलाफ मुकदमें चलते हैं। तो आइए पहले जानतें हैं कि आखिर IPC क्या होता है। भारतीय दण्ड संहिता (INDIA PENAL CODE) ब्रिटिश काल में सन् 1860 में लागू हुई थी। भारतीय दण्ड संहिता भारत के अन्दर देश के किसी भी नागरिक द्वारा किए गए अपराधों की परिभाषा बताती है। इसके सात ही IPC यह भी बताती है कि अपराध करने पर दोषी को क्या दंड मिलेगा। बता दें कि यह संहिता भारत की सेना पर लागू नहीं होती है।
क्या है राजद्रोह कानून? (Sedition Law)
राजद्रोह एक अपराध है, जिसका भारतीय दंड संहिता (IPC) के सेक्शन 124A में उल्लेख किया गया है। IPC में यह राजद्रोह कानून से परिभाषित किया गया है। यह कानून कहता है कि अगर कोई भी व्यक्ति राष्ट्रीय चिन्हों का या संविधान का अपमान करता है या फिर उसे नीचा दिखाने का प्रयास करता है, या सरकार विरोधी सामग्री बोलता- लिखता या अन्य लोगों को उकसाता है तो उसके खिलाफ राजद्रोह का केस दर्ज हो सकता है। राजद्रोह एक संगीन अपराध है, यह सरकार की अधिकृतता और अखंडता को ध्वस्त करता है।
राजद्रोह के लिए क्या है सजा
- राजद्रोह एक गैर जमानती अपराध है। इस धारा 124A के तहत सजा तीन साल तक के कारावास से लेकर आजीवन कारावास तक है
- कारावास के साथ इस कानून के तहत जुर्माना भी जोड़ा जा सकता है।
- राजद्रोह कानून के तहत आरोपित व्यक्ति को सरकारी नौकरी से प्रतिबंधित कर दिया जाता है। यानी की जिसपर यह यह धारा लगती है, वह कभी भी सरकारी नौकरी नहीं कर सकता है।
- आरोपित व्यक्ति को को आजीवन अपने पासपोर्ट के बिना रहना पड़ता है और आवश्यकता पड़ने पर हर समय अदालत में पेश होना पड़ता है।
भारत में राजद्रोह कानून का इतिहास
राजद्रोह कानून पहली बार भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार द्वारा 1870 में भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए के रूप में पेश किया गया था। शुरुआत में राजद्रोह कानून का प्राथमिक उद्देश्य भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को दबाना और ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के खिलाफ असंतोष की किसी भी आवाज को चुप कराना था। इसका सबसे उल्लेखनीय मामला 1908 में बाल गंगाधर तिलक का "मराट्टा" समाचार पत्र में उनकी कथित संलिप्तता के लिए मुकदमा था, जिस पर राजद्रोह को बढ़ावा देने का आरोप लगाया गया था। इसके लिए तिलक को छह साल के कठोर कारावास की सजा सुनाई गई थी।
भारत में राजद्रोह कानून की वर्तमान स्थिति
वर्तमान स्थिति में भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए राजद्रोह को एक ऐसे कार्य के रूप में परिभाषित करती है, जिसमें "भारत में कानून द्वारा स्थापित सरकार के प्रति घृणा या अवमानना लाना या लाने का प्रयास करना, या किसी को उगसाने का प्रयास शामिल है"। राजद्रोह की सजा में आजीवन कारावास या तीन साल तक की कैद, जुर्माने के साथ या उसके बिना शामिल है।
हाल के वर्षों में सरकार द्वारा आलोचकों और असहमति की आवाजों को चुप कराने के लिए राजद्रोह कानून का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया गया है। सबसे उल्लेखनीय मामला 2016 में जेएनयू देशद्रोह का मामला है, जहां एक विरोध प्रदर्शन के दौरान कथित रूप से भारत विरोधी नारे लगाने के लिए कई छात्रों पर राजद्रोह का आरोप लगाया गया था। इसके अलावा, कश्मीर से लेकर नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA) तक विभिन्न मुद्दों पर अपने विचार व्यक्त करने के लिए कई कार्यकर्ताओं और पत्रकारों पर देशद्रोह का आरोप लगाया गया है।
भारत में राजद्रोह कानून की आलोचना
भारत के संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार के साथ असंगत होने के कारण राजद्रोह कानून की कई लोगों द्वारा आलोचना की गई है। हाल में इस कानून का इस्तेमाल क्रमिक सरकारों द्वारा असहमति की आवाजों को दबाने और बोलने की आजादी का गला घोंटने के लिए किया गया है।
कानून के कई आलोचकों का तर्क है कि कानून बहुत व्यापक है, जो सरकार को किसी भी तरह से इसकी व्याख्या करने की अनुमति देता है। यह सरकार को राजद्रोह के आरोप में किसी को भी गिरफ्तार करने और हिरासत में लेने की शक्ति देता है।
बहुत अस्पष्ट और व्यक्तिपरक होने के लिए कानून की आलोचना भी की गई है, जिससे लोगों के लिए यह जानना मुश्किल हो जाता है कि किस तरह के भाषण या अभिव्यक्ति को राजद्रोह माना जा सकता है। यह मुक्त भाषण और अभिव्यक्ति पर एक भयावह प्रभाव डालता है, क्योंकि लोग देशद्रोह के आरोप के डर से खुद को सेंसर कर सकते हैं।
राजद्रोह कानून की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाएं
इंटरनेट मीडिया सहित अन्य मंचों पर असहमति की आवाज को दबाने के रूप में इसका इस्तेमाल किए जाने को लेकर राजद्रोह कानून सार्वजनिक जांच के दायरे में है। वर्तमान में एडिटर्स गिल्ड आफ इंडिया, मेजर जनरल (सेवानिवृत्त) एसजी वोमबटकेरे, पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण शौरी और पीपुल्स यूनियन फार सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) ने इस मुद्दे पर याचिकाएं दायर की हैं।
राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) द्वारा संकलित आंकड़ों के अनुसार, 2015 से 2020 के बीच राजद्रोह के 356 मामले दर्ज किए गए और अबतक 548 लोगों को गिरफ्तार किया गया है। हालांकि, राजद्रोह के सात मामलों में गिरफ्तार सिर्फ 12 लोगों को ही छह साल की अवधि में दोषी करार दिया गया।