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क्या है ईसीबी? भारतीय कंपनियां किस तरह इस सुविधा का इस्तेमाल करती हैं?

ईसीबी के जरिए लिये गए लोन का इस्तेमाल रियल एस्टेट या जमीन खरीदने के लिए नहीं किया जा सकता।

By Bhupendra SinghEdited By: Published: Sun, 09 Dec 2018 07:19 PM (IST)Updated: Sun, 09 Dec 2018 07:19 PM (IST)
क्या है ईसीबी? भारतीय कंपनियां किस तरह इस सुविधा का इस्तेमाल करती हैं?
क्या है ईसीबी? भारतीय कंपनियां किस तरह इस सुविधा का इस्तेमाल करती हैं?

हरिकिशन शर्मा, नई दिल्ली। रिजर्व बैंक ने हाल में एक्सटर्नल कमर्शियल बोरोइंग (ईसीबी) से संबंधित नियमों में ढिलाई दी ताकि भारतीय कंपनियां सस्ती दर पर विदेशों से पूंजी जुटा सकें। ईसीबी क्या है? और भारतीय कंपनियां किस तरह इस सुविधा का इस्तेमाल करती हैं? जागरण पाठशाला के इस अंक में हम यही समझने का प्रयास करेंगे।

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                                                    :::जागरण पाठशाला:::

एक्सटर्नल कमर्शियल बोरोइंग (ईसीबी) का शाब्दिक अर्थ है बाह्य वाणिज्यिक उधारी। जब कोई भारतीय कंपनी किसी बाहरी कंपनी (नॉन-रेजिडेंट) से वाणिज्यिक लोन लेती है तो उसे ईसीबी कहते हैं। यह लोन भारतीय मुद्रा सहित किसी भी ऐसी विदेशी मु्द्रा में लिया जा सकता है जो कन्वर्टिबल हो यानी जिसे बदला जा सके। ईसीबी लोन की सुविधा के जरिए भारतीय कंपनियां कम लागत पर बाहरी वित्तीय संस्थाओं से धनराशि उधार ले सकती हैं।

ईसीबी लोन अंतरराष्ट्रीय बैंक, अंतरराष्ट्रीय पूंजी बाजार, बहुपक्षीय वित्तीय संस्थाएं जैसे एशियाई विकास बैंक, पेंशन फंड, बीमा कंपनियां और विदेशों में स्थित भारतीय बैंकों की शाखाओं से लिया जा सकता है। ईसीबी के तहत बैंक लोन, फ्लोटिंग रेट बांड्स व फिक्स्ड रेट बांड्स, बायर्स क्त्रेडिट और सप्लायर्स क्त्रेडिट के रूप में लोन लिया जा सकता है। हालांकि ईसीबी लेने के लिए कुछ शतर्ें हैं। मसलन, जो भारतीय कंपनी ईसीबी ले रही है वह इसके योग्य होनी चाहिए और जिस बाहरी कंपनी से लोन लिया जा रहा है वह मान्यता प्राप्त होनी चाहिए।

ईसीबी के तहत लिये जाने वाले लोन की एक निश्चित परिपक्वता अवधि होती है, इसे किन कायरें पर खर्च किया जा सकता है और किन कायरें पर नहीं, इस संबंध में भी नियमों का पालन करना होता है। इसके अलावा ईसीबी लोन के लिए 'ऑल-इन-कॉस्ट' की अधिकतम सीमा भी तय होती है। 'ऑल-इन-कॉस्ट' में ब्याज दर और अन्य फीस, व्यय, चार्जेज और गारंटी फीस भी शामिल होती हैं। हालांकि इसमें कमिटमेंट फीस, प्री-पेमेंट फीस और भारत में भुगतान होने वाला विथहोल्डिंग टैक्स शामिल नहीं हैं।

कमिटमेंट फीस का मतलब यह है कि जब कोई कंपनी ईसीबी लोन के लिए समझौता करने के बाद निर्धारित अवधि में उसे प्राप्त नहीं करती है तो कमिटमेंट फीस चुकानी पड़ती है। इसी तरह अगर भारतीय कंपनी निर्धारित अवधि से पूर्व ही ईसीबी लोन का भुगतान करना चाहती है तो उसे प्री-पेमेंट फीस देनी पड़ती है।

ईसीबी तीन प्रकार से लिया जा सकता है- ट्रैक-1, ट्रैक-2 और ट्रैक-3 । यहां ट्रैक-1 का आशय मध्यावधि के लिए विदेशी मुद्रा में लिये जाने वाले लोन से है जिसकी न्यूनतम परिपक्वता अवधि साढ़े तीन साल होती है। वैसे मैन्यूफैक्चरिंग कंपनियां एक साल की परिपक्वता अवधि के लिए भी ट्रैक-1 में ईसीबी ले सकती हैं।

ट्रैक-2 के ईसीबी लोन की न्यूनतम परिपक्वता अवधि दस साल की होती है और यह दीर्घावधि के लिए विदेशी मुद्रा में ही लिया जाता है। ट्रैक-3 में ईसीबी लोन भारतीय रुपये में ही लिया जाता है और इसकी परिपक्वता अवधि साढ़े तीन होती है, लेकिन मैन्यूफैक्चरिंग कंपनियां एक साल की अवधि के लिए भी भी ऐसा लोन ले सकती हैं।

ईसीबी लोन के कई फायदे हैं। मसलन, इनके जरिए बड़ा लोन दीर्घावधि के लिए लिया जा सकता है। यह घरेलू लोन की अपेक्षा सस्ता भी पड़ता है। सस्ता इसलिए क्योंकि अधिकांश विदेशी वित्तीय बाजारों में ब्याज की दर भारत से कम है। चूंकि ईसीबी लोन विदेशी मुद्रा में होता है इसलिए भारतीय कंपनियां मशीनरी या उपकरणों के आयात के लिए विदेशी मुद्रा की जरूरत को इसके जरिए पूरा कर सकती हैं।

ईसीबी के जरिए लिये गए लोन का इस्तेमाल रियल एस्टेट या जमीन खरीदने के लिए नहीं किया जा सकता। वैसे अफोर्डेबल हाउसिंग के संबंध में यह शर्त लागू नहीं होती।


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