भारत का एक शहर काशी, जहां मृत्यु भी उत्सव है, आपके लिए इसे जानना जरूरी
मृत्यु के बाद पीने-पिलाने, खाने-खिलाने, नाचने-गाने और बकायदा जश्न मनाने का चलन कई जातियों में है। गौरतलब तथ्य यह है कि इन सभी बिरादरियों की शिनाख्त काशी के मूल वासियों के रूप में है।
वाराणसी जागरण स्पेशल। नगाड़े के डंके की जोशीली रिद्म पर थिरकते बूढ़े-बच्चे और नौजवान। किसी चेहरे पर क्लांति की कोई रेखा नहीं, हर होंठ पर मुस्कान। मद्य के सुरूर में मदमत्त लोगों का हर्षमिश्रित शोर। जुलूस झूमता-घूमता बढ़ता चला आ रहा है भेलूपुरा से सोनारपुरा की ओर। जुलूस का जोश-ओ-खरोश देखकर यकबारगी भ्रम होता है मानो कोई वरयात्रा द्वाराचार के लिए वधू पक्ष के द्वार की ओर बढ़ रही हो। यह भ्रम टूटता है 'यात्रा' के नजदीक पहुंचने पर जब बाजे-गाजों के शोर के बीच ही 'राम नाम सत्य है' के मद्धम स्वर कानों से टकराने लगते हैं। स्पष्ट हो जाता है कि वह वरयात्रा नहीं शवयात्रा है।
गज्जन चौधरी अपने परिजनों, मित्रों और शुभचिंतकों के साथ अपने स्वर्गीय पिता जगनंदन चौधरी के अंतिम संस्कार के लिए यह सजीली शवयात्रा लेकर पहुंचे हैं हरिश्चंद्र घाट तक। शवयात्रा को लेकर वर यात्रा का भ्रम अगर इस देश में कहीं पैदा हो सकता है तो यकीनन वह शहर बनारस ही है। एक नहीं कई बिरादरियां ऐसी हैं, जो मुत्यु को शोक के रूप में नहीं 'उत्सव' के रूप में मनाती हैं, सिर्फ अकाल मुत्यु को छोड़कर। शतायु होने के बाद तो लगभग सभी जातियों-वर्गो की शवयात्राएं बाजे-गाजे और रामधुन के साथ निकलती हैं।
मगर मृत्यु के बाद पीने-पिलाने, खाने-खिलाने, नाचने-गाने और बकायदा जश्न मनाने का चलन कई जातियों में है। गौरतलब तथ्य यह है कि इन सभी बिरादरियों की शिनाख्त काशी के 'मूल वासियों' के रूप में है। विदेशी पर्यटकों को ही नहीं देश के अन्य राज्यों से आने वालों को भी भौचक्का कर देने वाले इस 'चलन' के पीछे 'लोकाचार' क्या है? यह जानने की गरज से रोकते हैं सामने से आ रही शव यात्रा की अगुआई कर रहे गज्जन चौधरी को। सीधे-सादे चौधरी का दर्शन-वर्शन से कोई खास वास्ता नहीं, उन्हें सिर्फ इतना मालूम है कि वे पुश्तों से चली आ रही रस्म निबाह रहे हैं।
अलबत्ता क्यों निभा रहे हैं इस प्रश्न का तर्कपूर्ण उत्तर है उनके पास। कहते हैं गज्जन चौधरी 'हमार बाऊ एक सौ दुई साल तक जियलन, मन लगा के आपन करम कइलन, जिम्मेदारी पूरा कइलन। नाती-पोता, पड़पोता खेला के बिदा लेहलन त गम कइसन। मरे के त आखिर सबही के हौ एक दिन, फिर काहे के रोना-धोना। मटिये क सरीर मटिये बनल बिछौना।' गज्जन को शायद खुद नहीं मालूम कि उनकी जुबान से खुद कबीर बोल रहे हैं, जो कभी 'निरगुनिया' गाते बोल गए थे 'माटी बिछौना माटी ओढ़ना माटी में मिल जाना होगा।'
दर्शन शास्त्री प्रो. देवव्रत चौबे कहते हैं 'गज्जन को मालूम हो न हो दरअसल इस रिवाज को यह सूफियाना दर्शन ही कहीं न कहीं से आधार देता है।' कहते हैं 'पौराणिक मान्यताओं के अनुसार भी काशी में मृत्यु सिर्फ मृत्यु नहीं मोक्ष है। अर्थात जन्म-मृत्यु के चक्र से चिरकालिक मुक्ति। शायद यही कारण है कि शेष विश्व में जहां शवयात्रा शोक यात्रा है, वहीं काशी में उसका स्वरूप वरयात्रा जैसा उत्सवी है।' प्रो. देवव्रत कहते हैं 'खाली' 'समास' का ही तो फर्क है। जीवित अवस्था में जो वरयात्रा है मृत अवस्था में वहीं यात्रा 'वरणीय' की ओर यात्रा है।
ऐसे में उसका स्वरूप वरयात्रा का भला क्यों न हो? सच तो यह है कि बनारस में मृत्यु वस्तुत: एक 'योग्य' और 'पूर्ण' मुत्यु की तलाश जैसी है। एक बहुप्रतीक्षित अति आकांक्षित मुत्यु की कामनास्थली है बनारस। उनका मानना है कि चेतना का यही दर्शन यहां के व्यवहारिक जनजीवन से जुड़कर पहले व्यवहार बना। लोकमानस से जुड़कर यही दर्शन लोकाचार बन गया। काशी में मुत्यु भी है एक रोमांटिक परिकल्पना जैसी प्रो. देवव्रत चौबे शहर बनारस के इस खास रिवाज की सूफियाना व्याख्या करते हैं कबीर के इस निर्गुण से- 'कर ले श्रृंगार रसिका अलबेली, अब तो साजन घर जाना होगा।'
कहते हैं प्रो. चौबे काशी के अनूठे रिवाज को कहीं न कहीं से कबीर का यह दर्शन भी परिपुष्ट करता है। यहां मुत्यु कोई 'डर' नहीं बल्कि 'पिया मिलन की आस' पूरा होने जैसा एक आह्लादकारी अनुभूति है। ऐसे में जब मुत्यु भी एक रोमांटिक परिकल्पना हो जाय और 'शवयात्रा' 'शुभयात्रा' में बदल जाए तो इसका जश्न लोग क्यों न मनाएं?