छत्तीसगढ़ में जंगल पर अपने अधिकार के लिए सरकार के अगले कदम का इंतजार कर रहे आदिवासी
सुप्रीम कोर्ट ने 21 राज्यों के 20 लाख आदिवासियों को वनभूमि से बेदखल करने का आदेश दिया है।छत्तीसगढ़ में चार लाख आदिवासी परिवार प्रभावित होंगे।
रायपुर, राज्य ब्यूरो। सुप्रीम कोर्ट ने 21 राज्यों के 20 लाख आदिवासियों को वनभूमि से बेदखल करने का आदेश दिया है। लोकसभा चुनाव के ऐन पहले आए इस निर्णय का बड़ा राजनीतिक प्रभाव होने की संभावना है। छत्तीसगढ़ में चार लाख आदिवासी परिवार प्रभावित होंगे। कांग्रेस और भाजपा इस मुद्दे पर जहां राजनीति खेल खेलने लगे हैं वहीं आदिवासी समाज सरकार के कदम का इंतजार कर रहा है।
छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकार ने सुप्रीम कोर्ट का आर्डर आने से पहले ही अफसरों को वन भूमि के निरस्त पट्टों की समीक्षा करने का निर्देश दे दिया था। कोर्ट का आदेश आने के बाद कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को पत्र लिखकर कहा कि इस आदेश के खिलाफ पुनर्विचार याचिका दायर करें। अगले दिन आरएसएस और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह भी आदिवासियों के बचाव में आ गए।
आदिवासी जानते हैं कि चुनाव के दौरान उनके वोट की अहमियत क्या है। इसीलिए वे चुप हैं। हालांकि अंदर ही अंदर गुस्सा है और कभी भी विस्फोट हो सकता है। इतना तो तय है कि अगर बेदखली की नौबत आई तो बड़ा बवाल होगा। छत्तीसगढ़ सर्व आदिवासी समाज के अध्यक्ष बीपीएस नेताम ने कहा कि हम दूसरे राज्यों से आने वाली प्रतिक्रियाआगें पर नजर रखे हुए हैं।
अभी जेल भरो आंदोलन या भारत बंद जैसे आंदोलन के विकल्पों पर विचार किया जा रहा है। जल्द ही निर्णय होगा। नेताम ने कहा कि आदिवासियों को बेदखल किया गया तो जंगल बचेंगे नहीं। उन्होंने सवाल उठाया कि कोई भी परियोजना हो, अभ्यारण्य हो या उद्योग लगाना हो, हर बार आदिवासियों को ही क्यों बेदखल होना पड़ता है। अब अगर इस मसले पर आंदोलन उठा तो विकराल रूप लेगा। अभी तो सरकार पर भरोसा है कि पट्टा देने की प्रक्रिया रूकेगी नहीं।
वनाधिकार कानून का संकट
वनाधिकार कानून यूपीए सरकार ने 2006 में पास किया था। 2008 में यह लागू किया गया। इसके तहत उन वनवासियों को वनाधिकार देना था जो पीढ़ियों से वहां रह रहे हैं। छत्तीसगढ़ में अबूझमाड़ के 44 सौ किमी के इलाके में किसी भी जमीन का कोई पट्टा नहीं है तो इसका मतलब यह नहीं है कि वहां अतिक्रमण किया गया है। माड़िया वहां सदियों से पीढ़ी दर पीढ़ी रहते आए हैं। जंगल में बहुत से गांव ऐसे ही हैं। इनके लिए ही वनाधिकार कानून लाया गया। इस कानून के लागू होते ही पर्यावरणवादी संस्थाएं इसके खिलाफ खड़ी हो गईं। तर्क दिया गया कि इससे जंगलों को नुकसान होगा।
यहां हुई है गड़बड़
2008 में कानून लागू होते ही इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की गई। यूपीए सरकार लगातार इसका बचाव करती रही। इस दौरान वनाधिकार पट्टे समुदाय और व्यक्तिगत आधार पर दिए जाते रहे। छत्तीसगढ़ में करीब चार लाख पट्टे निरस्त किए गए। छत्तीसगढ़ में निरस्त पट्टों की समीक्षा की जा रही है। दोबारा आवेदन लिए जा रहे हैं। इसी बीच सुप्रीम कोर्ट ने सभी राज्यों से ऐसे वनाधिकार पट्टों की जानकारी मांगी जो अमान्य किए गए हैं। इस जानकारी के आधार पर बेदखली का आदेश जारी किया गया।
आदेश क्यों गलत है
वनाधिकार कानून के तहत ग्राम सभा सर्वोपरि है। अपनी जमीन का दावा लोग ग्राम सभा में करते हैं। ग्राम सभा को पता होता है कि किसका दावा सही है और कौन बेजा कब्जा करने आया है। ग्राम सभा के प्रस्ताव पर उप मंडल अधिकारी और वन विभाग निर्णय लेते हैं। जानकार बताते हैं कि आवेदन एक प्रोफार्मा में करना होता है। इसमें तमाम दस्तावेज लगाने पड़ते हैं।
वनाधिकार कानून में आवेदन निरस्त करने का कोई प्रावधान नहीं है। अगर दस्तावेजों में कोई कमी है तो दोबारा आवेदन देने की प्रक्रिया अपनाई जानी चाहिए। ऐसे में पट्टे निरस्त करने को आधार बनाकर कोर्ट ने जो निर्णय दिया है वह गलत बताया जा रहा है।