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भारतीय भाषाओं के साहित्य का आपस में अनुवाद जरूरी

हिंदी साहित्य सम्मेलन के 68वें अधिवेशन का दूसरा दिन 'हिंदी और मराठी साहित्य का अंत: संबंध' तथा 'शिक्षण का माध्यम, मातृभाषाएं' विषय को समर्पित रहा।

By kishor joshiEdited By: Published: Tue, 15 Mar 2016 08:36 AM (IST)Updated: Tue, 15 Mar 2016 08:58 AM (IST)
भारतीय भाषाओं के साहित्य का आपस में अनुवाद जरूरी

नागपुर। हिंदी साहित्य सम्मेलन के 68वें अधिवेशन का दूसरा दिन 'हिंदी और मराठी साहित्य का अंत: संबंध' तथा 'शिक्षण का माध्यम, मातृभाषाएं' विषय को समर्पित रहा। सम्मेलन के पहले सत्र 'साहित्य परिषद' की अध्यक्षता करते हुए मराठी के सुप्रसिद्ध विद्वान डॉ. दामोदर खड़से ने कहा, वृहद पाठक वर्ग तक पहुंच के लिए भारतीय भाषाओं के साहित्य का आपस में अनुवाद जरूरी है। इनमें हिंदी का प्रभाव क्षेत्र अधिक महत्व रखता है। उन्होंने हिंदी-मराठी के अंत: संबंध का हवाला देते हुए कहा, 'दोनों आर्य परिवार की भाषाएं हैं। दोनों की लिपि एक (देवनागरी) ही है। महाराष्ट्र उत्तर और दक्षिण को जोड़ने का कार्य करता है।'

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हालांकि सूर्य नारायण रणसुभे ने डॉ. नामवर सिंह के कथन पर नाराजगी जताई। नामवर सिंह ने कहा था, 'मराठी अथवा गैर हिंदी साहित्य सम्मेलन के 68वें अधिवेशन का दूसरा दिन 'हिंदी और मराठी साहित्य का अंत: संबंध' तथा 'शिक्षण का माध्यम, मातृभाषाएं' विषय को समर्पित रहा। भाषी लेखक इसलिए हिंदी में आते हैं, क्योंकि उनकी अपनी भाषा में स्वीकार्यता नहीं है।' इस पर रणसुभे ने भारतेंदु हरिश्चंद्र और महावीर प्रसाद द्विवेदी जैसे साहित्यकारों के मराठी ज्ञान का उल्लेख किया। कहा, इन विद्वानों ने मराठी से भी बहुत कुछ हासिल किया।

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संपूर्ण भारतीय भाषाओं के इतिहास लिखने पर जोर

दूसरे सत्र 'राष्ट्रभाषा परिषद' के सभापति डॉ. सूर्यप्रसाद दीक्षित ने कहा, राजनीतिक उपद्रव के बावजूद हमारे यहां सांस्कृतिक विनिमय होते रहे हैं। आज जरूरत अलग-अलग भाषाओं की जगह संपूर्ण भारतीय भाषाओं के इतिहास लिखने की है।

मातृभाषा में शिक्षा देने की व्यावहारिक दिक्कतों के बारे में डॉ. दीक्षित ने कहा, हम बच्चों के लिए सटीक पुस्तकें तैयार नहीं कर पाते। इसके लिए भाषा मनोविज्ञान जानने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि किसी अन्य भाषा में अध्ययन का सबसे बड़ा दुष्परिणाम यह है कि हम मूल चिंतन को गंवा बैठते हैं।


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