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कृषि वैज्ञानिकों का दावा, तिवड़ा से नहीं होता लकवा; विदेश में भी स्वाद लेकर खाई जा रही दाल

वैज्ञानिकों का कहना है कि तिवड़ा के सेवन से शरीर को किसी भी प्रकार का नुकसान नहीं होता। इसका बड़े पैमाने पर उत्पादन गरीबों के लिए प्रोटीन का अच्छा विकल्प होगा।

By Arti YadavEdited By: Published: Tue, 27 Nov 2018 03:04 PM (IST)Updated: Tue, 27 Nov 2018 03:04 PM (IST)
कृषि वैज्ञानिकों का दावा, तिवड़ा से नहीं होता लकवा; विदेश में भी स्वाद लेकर खाई जा रही दाल
कृषि वैज्ञानिकों का दावा, तिवड़ा से नहीं होता लकवा; विदेश में भी स्वाद लेकर खाई जा रही दाल

रायपुर, जेएनएन। इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर के कृषि वैज्ञानिकों ने तिवड़ा पर अनुसंधान करके उसका विषैला तत्व दूर कर दिया है। उन्होंने तिवड़ा की दो नई वेराइटी महातिवड़ा और प्रतीक विकसित की हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि इसके सेवन से शरीर को किसी भी प्रकार का नुकसान नहीं होता। इसका बड़े पैमाने पर उत्पादन गरीबों के लिए प्रोटीन का अच्छा विकल्प होगा।

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सालों से तिवड़ा की परंपरागत खेती चली आ रही थी, उसकी तुलना में ये दो वेराइटी सेहत के लिए नुकसानदेह नहीं हैं। वैज्ञानिकों के मुताबिक तिवड़ा की दाल खाने से लकवा की बीमारी हो जाती है, यह महज भ्रांति है। यह मिथ्या है। धान के बाद रायपुर समेत कवर्धा, बेमेतरा, नवापारा आदि जिलों में इसकी बेहतर फसल ली जाने लगी है। छत्तीसगढ़ का तिबड़ा देश के अन्य राज्यों में ही नहीं, विदेशों में भी जाता है और लोग स्वाद लेकर इसकी दाल खाते हैं।

कन्हार भूमि में पैदावार

प्रतीक तिवड़ा सन 1999 में विकसित किया गया। इसी तरह से महातिवड़ा 2008 में विकसित हुआ है। प्रतीक के पौधे गहरे रंग के 50-70 सेमी के होते हैं। दाने बड़े आकार व मटमैले रंग के आते हैं, जो औसत उपज 1275 किग्रा प्रति हेक्टेयर है। वहीं महातिवड़ा के पौधे सीधे बढ़ने वाले, पत्तियां गहरी हरी, गुलाबी फूल तथा दानों का वजन आठ ग्राम होता है। इसकी उपज 19 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक होती है। इसकी पैदावार मध्यम भूमि से भारी कन्हार भूमि में किया जाता है।

इस दाल में 28 फीसदी प्रोटीन

तिवड़ा छत्तीसगढ़ की प्रमुख दलहनी फसल है। इसके हरी-पत्ती व फल्लियों का सब्जी के रूप में उपयोग किया जाता है। फसल का भूसा पशुओं के लिए अच्छा आहार है। राज्य के करीब 3.50 लाख हेक्टेयर में इसकी खेती हो रही है। सालाना करीब 212 मीट्रिक टन का उत्पादन हो रहा है। क्षेत्रफल के हिसाब से धान के बाद सबसे अधिक रकबा तिवड़ा का है। इसमें 28 प्रतिशत प्रोटीन के साथ अन्य उपयोगी तत्व पाए जाते हैं।

इसलिए लगा था प्रतिबंध

अंदेशा है कि तिवड़ा में हानिकारक पदार्थ बीटाएन ऑक्सिलाइल 2.3 डाईएमिनो प्रोपिओनिक अम्ल (ओडीएपी) होता है, जिससे गठिया रोग, निचले कमर में लकवा, ग्वाइटर हो जाते हैं। एग्रीकल्चर विवि के वैज्ञानिकों की माने तो सेवन करने से होने वाले रोग को लेकर हालांकि कोई साक्ष्य सामने नहीं आया है। महातिवड़ा की नई वेराइटी विकसित करने वाले वैज्ञानिक डॉ. दीपक चंद्राकर ने बताया कि नई वेराइटी 'प्रतीक' में हानिकारक तत्व की मात्रा नगण्य महज 0.07 से 0.08 प्रतिशत है।

ऐसे बनाएं तिवड़ा दाल, रहेगी पोषक

तिवड़ा का उपयोग आमतौर पर दाल व बेसन के रूप में किया जाता है। रिसर्च से यह स्थापति हो चुका है कि ओडीएपी की सबसे ज्यादा मात्रा तिवड़ा बीज के भ्रूण में पाई जाती है। दाल बनाने से भ्रूण और छिलका अलग हो जाने पर 43 प्रतिशत तक अपोषक तत्व की मात्रा कम हो जाती है। दाल पकाने के पूर्व ठंडे पानी में भिगाकर आधे घंटे के लिए रख दें और पकाने के पहले पानी को निथारने से हानिकारक तत्व कम हो जाता है।

आइजीकेवी अभा समन्वित मूल्लार्प परियोजना के दलहन वैज्ञानिक डॉ.दीपक चंद्राकर ने कहा कि छत्तीसगढ़ के बड़ क्षेत्रों में तिवड़ा की फसल किसान पारंपरिक रूप से उगाते आ रहे हैं। इससे बीमारी की शिकायत नहीं है। विवि के माध्यम से इजात दोनों नई प्रजातियां बेहतर पैदावार के साथ प्रोटीन युक्त है।


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