ये हैं असल हीरो! सिखा रहे कर्ज लौटाने की कला, किसी ने धन, किसी ने जमीन तो किसी ने वेतन देकर निभाया फर्ज
किसी ने धन, किसी ने जमीन तो किसी ने वेतन देकर यह फर्ज निभाया और इनका यह प्रयास बड़ा बदलाव लाने में सफल रहा।
जेएनएन, नई दिल्ली : असल जीवन के ऐसे नायकों की कहानी जो देश और समाज का ऋण चुकाने को यथासंभव प्रयास करते दिख रहे हैं। किसी ने धन, किसी ने जमीन तो किसी ने वेतन देकर यह फर्ज निभाया और इनका यह प्रयास बड़ा बदलाव लाने में सफल रहा।
देश और समाज से जो लिया, लौटाने का भी कर रहे प्रयास
जौनपुर, उत्तर प्रदेश के सिरकोनी क्षेत्र का इलिमपुर गोधना गांव आज अपने प्राथमिक स्कूल के लिए पहचाना जा रहा है। यहां प्राथमिक स्कूल तो अरसे से था, लेकिन अब जैसा है वैसा नहीं था। संसाधनहीन और जीर्णशीर्ण था। इसी स्कूल में कभी गांव के ज्ञान प्रकाश सिंह पढ़ा करते थे। प्राथमिक शिक्षा उन्होंने यहां से ही प्राप्त की थी। करियर में सफलता, दौलत, शोहरत कमाने के बाद ज्ञान प्रकाश अपने गांव को, समाज को, अपने उस स्कूल को नहीं भूले। इनका कर्ज लौटाने के लिए वे गांव लौट आए। वह कहते हैं, अपने गांव का स्कूल हमेशा याद रहा, जिसने मुझे इस योग्य बनाया। अब मेरी बारी थी..। ज्ञान प्रकाश ने उस सरकारी स्कूल का कायाकल्प कर दिया। स्कूल ही नहीं, सरकारी अस्पताल को भी मदद दी।
आज गांव का यह प्राइमरी स्कूल शहर के किसी बड़े पब्लिक स्कूल को मात देता दिखता है। इमारत से लेकर परिसर तक और कक्षों तक, सबकुछ संवर चुका है। स्कूल में आधुनिक स्मार्ट क्लास, सुसज्जित क्लास रूम, सुविधायुक्त शौचालय, कंप्यूटर लैब, सुंदर उद्यान, सीसीटीवी निगरानी, बाउंड्रीवॉल और वे तमाम साजोसामान व सुविधाएं मौजूद हैं, जो इसे आधुनिक व उच्चगुणवत्ता वाले स्कूल का दर्जा देती हैं। गांव के लोग बताते हैं कि इन सब पर करीब 80 लाख रुपये का खर्च खुद ज्ञान प्रकाश सिंह ने किया है। पूछने पर ज्ञान प्रकाश कहते हैं, दान की राशि जोड़ी नहीं जाती..।
जिला अस्पताल में भी ज्ञान प्रकाश ने डीलक्स शौचालय का निर्माण करा दिया है और स्वास्थ्य अमले को मोबाइल चिकित्सा वैन की सौगात दी है। ज्ञान प्रकाश बताते हैं, 1974 में गांव के परिषदीय विद्यालय से आठवीं कक्षा पास करने के बाद मैं उच्च शिक्षा ग्रहण करने शहर चला गया। कालांतर में रोजी-रोटी के लिए मुंबई पहुंचा। मैंने जीवन में जो कुछ अर्जित किया, वह मेरे परिवार, समाज, गांव और स्कूल की ही तो देन है। मैंने आज जो किया, यह तो अपनी माटी का कर्ज चुकाने का बस एक छोटा सा प्रयास है..।
वेतन के पैसे से बनवाया स्कूल भवन
बिलासपुर, छत्तीसगढ़ के उमरमरा गांव स्थित प्राथमिक स्कूल में पदस्थ शिक्षिका के व्यक्तिगत योगदान की बदौलत आज इस बैगा आदिवासी बहुल इलाके में बच्चों को बेहतर शिक्षा मुहैया हो पा रही है। घने जंगलों के बीच बसे ग्राम उमरमरा की आबादी बमुश्किल एक हजार है। तबादला पाकर शिक्षिका अंजुलता भास्कर जब इस स्कूल में पहुंची तो यह स्कूल नाममात्र को ही स्कूल था। बच्चों की संख्या नगण्य थी। स्कूल भवन भी नाममात्र को ही था।
अंजुलता ने वेतन के पैसे लगाकर पहले तो स्कूल भवन को दुरुस्त कराया और फिर अन्य संसाधन जोड़े। जब स्कूल भवन और संसाधन मुहैया हो गए तो बच्चों को जोड़ना शुरू किया। मन लगाकर पढ़ाना शुरू किया। जिस स्कूल में बच्चों का टोटा हुआ करता था, आज वहां दूर-दराज से भी बच्चे आ रहे हैं। नियमित रूप से पढ़ाई हो रही है। आलम ये कि यहां रविवार को भी छुट्टी नहीं होती। आदिवासी बच्चों का भविष्य गढ़ने और समाज में फैली कुरीतियों को दूर करने के लिए भी अंजुलता मिशन मोड में काम कर रही हैं। अंजुलता बताती हैं, मैंने बच्चों के भविष्य का वास्ता देकर ग्रामीणों से श्रमदान की अपील की। निर्माण सामग्री खुद जुटाई। मिस्त्री का इंतजाम भी किया। दो महीने की मशक्कत के बाद भवन बनकर तैयार हो गया और फिर पढ़ाई भी।
बेटियों की शिक्षा के लिए किया कर्मभूमि का दान :
मेरठ, उत्तर प्रदेश के गांव सलेमपुर बौंद्रा में आठवीं तक का ही स्कूल है। इससे आगे की पढ़ाई के लिए बच्चों को दस किमी दूर परीक्षितगढ़ या किठौर जाना पड़ता। सुरक्षा कारणों से लोग अपनी बेटियों को इतनी दूर भेजने से कतराते। नतीजा यह है कि 70 फीसद बेटियां आठवीं से आगे पढ़ ही नहीं पातीं। ऐसे में गांव के किसान जगपाल सिंह ने इंटर कॉलेज की खातिर अपनी खेती की जमीन दान कर दी। दान की गई जमीन की कीमत 25 लाख रुपये है।
एक-एक इंच जमीन के लिए अपनों का लहू बहाने के लिए बदनाम पश्चिम उत्तर प्रदेश के इस किसान ने इस मामले में नजीर पेश की है। जगपाल बताते हैं, इंटर कॉलेज के अभाव में लड़कियों का पूरी पढ़ाई न कर पाना हमेशा सालता रहा। राजकीय इंटर कॉलेज की स्वीकृति तो मिल गई, लेकिन इसके लिए पंचायत की तीन बीघा जमीन पर्याप्त नहीं थी, तो अपनी सवा दो बीघा पुश्तैनी जमीन दान कर दी। खेत से बिछोह का गम किसान से ज्यादा कौन महसूस कर सकता है लेकिन बेटियों को तालीमयाफ्ता होता देखने की हसरत में यह कष्ट भी सुखमय लगने लगा..।
अंगूठा छाप हूं तो क्या हुआ, बच्चे जरूर पढ़ेंगे :
जमुई, बिहार के कई सरकारी मान्यताप्राप्त प्राथमिक विद्यालयों को मात्र इसलिए बंद कर देना पड़ा कि उनके भवन निर्माण के लिए शिक्षा विभाग को उपयुक्त जमीन उपलब्ध नहीं हो पाई थी। इससे इतर जिले के सिकंदरा प्रखंड के पिरहिंडा गांव में न केवल स्कूल भवन बना बल्कि आज 100 से अधिक बच्चे यहां शिक्षा पा रहे हैं। यह मुमकिन हुआ गांव के अंगूठा छाप एक मजदूर के बूते। रावत नामक इस शख्स ने विद्यालय के लिए अपनी नौ डिसमिल जमीन दान दी। रावत के पास अब घर के अलावा कोई जमीन नहीं बची है। शिक्षा के प्रति रावत के इस समर्पण को देख शिक्षा विभाग के अधिकारियों से लेकर गांव के लोग तक हैरान हैं।
रावत बताते हैं, गांव में स्कूल तो स्वीकृत हो गया था, लेकिन 12 वषरें से इसके भवन का निर्माण नहीं हो पाया था। एक परिवार द्वारा मुहैया कराए गए शेड में स्कूल चलता था। मुझे पता चला कि शिक्षा विभाग ने भूमि रहित जिले के दर्जनों नवसृजित प्राथमिक विद्यालयों के साथ इस विद्यालय को भी बंद करने की घोषणा कर दी है। मासूम बच्चों को अब स्कूल के लिए काफी दूर जाना पड़ सकता था। गांव के लोगों ने आपसी सहयोग से जमीन खरीदने का विचार किया। लेकिन लाख प्रयास के बावजूद उन्हें जमीन उपलब्ध नहीं हो पाई। फलत: सभी हाथ पर हाथ धर कर बैठ गए। ऐसे में जब मैंने अपनी नौ डिसमिल जमीन विद्यालय के लिए दान देने की बात की तो लोगों की खुशी का ठिकाना न रहा। आज गांव के बच्चे गांव में ही पढ़ रहे हैं।
(रिपोर्ट: जौनपुर से सतीश सिंह, बिलासपुर से राधाकिशन शर्मा, मेरठ से नवनीत शर्मा और जमुई से अरविंद कुमार सिंह।)