आदिवासी समाज के नियम-कानूनों को संकलित करता है पत्थलगड़ी
तमाम उपेक्षाओं के बाद भी आदिवासियों द्वारा संविधान प्रदत्त अधिकारों के अनुसार अपनी मांगों को सामने रखना लोकतंत्र में उनकी आस्था को दर्शाता है
नई दिल्ली [डॉ. अमृत कुमार]। पत्थलगड़ी आदिवासी समाज की परंपरा में शामिल है। इसके माध्यम से समाज अपने नियम-कानूनों या प्रतीकों को संकलित करता और प्रदर्शित करता है। आदिवासी इतिहास लेखन के दौरान यह पुरातात्विक साक्ष्य के तौर पर इतिहासकारों की मदद करता है, लेकिन पिछले कुछ दिनों से पत्थलगड़ी आदिवासियों और झारखंड सरकार के मध्य विवाद का कारण बना हुआ है। आदिवासी समाज खासकर मुंडा समुदाय को जानने वालों के लिए पत्थलगड़ी कोई नई परंपरा नहीं है। यह उनकी सामूहिक सामुदायिक अभिव्यक्ति का सांस्कृतिक हिस्सा है। जाहिर है पत्थलगड़ी का जुड़ाव परंपराओं से है। अत: इसके संबंध में की जाने वाली किसी भी नकारात्मक टिप्पणी को आदिवासी अपनी प्रतिष्ठा पर ले लेते हैं।
वर्तमान समय में झारखंड सरकार द्वारा जिस प्रकार पत्थलगड़ी की आड़ में अफीम के अवैध धंधे और राष्ट्रविरोधी ताकतों के संरक्षण की बात सामने लाई जा रही है उसके बाद आदिवासियों का विरोध करना स्वाभाविक हो जाता है। दरअसल पत्थलगड़ी का हालिया विवाद झारखंड के खूंटी जिले, जहां बिरसा मुंडा का जन्म हुआ था, से शुरू हुआ है। पिछले दिनों खूंटी जिले के कई पंचायतों के ग्रामीणों ने गांव के बाहर पत्थरों पर अपनी विकास संबंधी मांगों को लिखकर गाड़ दिया था। जिसमें उन्होंने प्रशासन से सड़क, बिजली, पानी इत्यादि बुनियादी सुविधाओं की मांग की थी। इसके साथ ही ग्रामीणों ने प्रशासन को स्पष्ट चेतावनी भी दी थी कि पहले विकास संबंधी कार्यो को पूरा किया जाए तभी गांव में प्रशासन के किसी भी व्यक्ति को प्रवेश मिलेगा।
जब पुलिस पूछताछ के लिए एक ग्राम प्रधान को पकड़कर ले गई तो ग्रामीणों ने कुरुंगा गांव के पास पुलिस व जैप के जवानों को बंधक बन लिया। जब तक ग्राम प्रधान को मुक्त नहीं किया गया तब तक ग्रामीणों ने पुलिस के जवानों को भी बंधक बनाए रखा। पत्थलगड़ी और जवानों को बंधक बनाए जाने के बाद प्रशासन द्वारा अधिकारियों को ग्रामीणों से बात करने के लिए भेजा गया, लेकिन उसी दौरान प्रशासन की ओर से यह आरोप लगाया गया कि अफीम की अवैध खेती को आदिवासी ग्रामीण बचाना चाहते हैं और इसी कारण पत्थलगड़ी कर पुलिस प्रशासन को गांव में आने से रोक रहे हैं। पत्थलगड़ी को अवैध अफीम की खेती के साथ जोड़े जाने के बाद मामला और बिगड़ने लगा है। धीरे-धीरे खूंटी जिले के कई और आदिवासी गांवों ने भी पत्थलगड़ी करना शुरू कर दिया है।
देखा जाए तो प्रशासन और ग्रामीणों के बीच चल रहे इस विवाद में ग्रामीण विकास का मुख्य कहीं गौण हो गया है और अफीम की खेती, राष्ट्रविरोधी ताकत तथा चर्च की भूमिका प्रमुख बन गया है।1आदिवासियों ने अपने सभी आर्थिक संसाधनों को राष्ट्र विकास में समर्पित कर दिया है। आज उनकी संपत्ति उनकी सांस्कृतिक पहचान ही है। ऐसे में आदिवासी संस्कृति के प्रतीकों का प्रयोग करने पर उसे अफीम की खेती और राष्ट्रविरोधी ताकतों के संरक्षण के साथ जोड़ने पर विवाद स्वाभाविक है। यह आदिवासी संस्कृति का नकारात्मक चित्र प्रस्तुत करता है। हो सकता है कि झारखंड सरकार की बात भी सही हो और वहां अफीम की खेती कुछ जगहों पर हो भी रही हो, लेकिन जब पत्थलगड़ी को सरकार इन धंधों का कवच बताने की कोशिश करती है तब सरकार अपने आप को आदिवासियों के साथ एक सांस्कृतिक विवाद में शामिल कर लेती है।
वास्तव में झारखंड राज्य बन जाने के बाद भी कभी राजनीतिक अस्थिरता तो कभी नक्सलवाद का हवाला देकर विकास से आदिवासी समाज को दूर रखा जाता रहा है। जो संवैधानिक अधिकार आदिवासियों को दिए गए उनका भी बड़े पैमाने पर अतिक्रमण किया जाता रहा है। जैसे-जमीन-सांस्कृतिक संरक्षण और आरक्षण आदि को पूर्ण रूप से संविधान के प्रावधानों के अनुसार लागू भी नहीं किया जा सका है।1कई व्यक्ति पत्थलगड़ी को शिलालेख समझ लेते हैं। कुछ हद तक ऐसा लगता भी है, लेकिन पत्थलगड़ी एक सामूहिक अभिव्यक्ति है, जबकि शिलालेख अधिकांशत: शासनादेश या गुणगान। सामूहिक अभिव्यक्ति होने के कारण पत्थलगड़ी को लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति की संज्ञा देना गलत नहीं होगा।
आदिवासी समाज एक विशिष्ट सांस्कृतिक समाज है और आदिवासियों का विकास उनके सांस्कृतिक मान्यताओं के अनुरूप हो, ऐसा संवैधानिक प्रावधान भी है। अत: पत्थलगड़ी के माध्यम से विकास की मांगों को रखना आदिवासी समाज के परिप्रेक्ष्य में गलत नहीं ठहराया जा सकता। आजादी के 70 साल बाद भी आदिवासी क्षेत्रों में जहां सड़क, बिजली, पानी, शिक्षा, चिकित्सा की सुविधा नहीं है वहां आदिवासियोंद्वारा पत्थलगड़ी कर अपने लिए विकास की मांग को रखना लोकतंत्र का विरोध नहीं है, बल्कि यह उनकी लोकतंत्र के प्रति आस्था को दर्शाता है। अभी भी उनको लोकतंत्र से उम्मीद है। दरअसल आदिवासी संस्कृति को समझने के बाद ही आदिवासी क्षेत्रों में विकास की रणनीति को तैयार किया जा सकता है। इसमें सामाजिक प्रभाव के अध्ययन को जोड़कर हम विकास को मानवीय बना सकते हैं। सरकारों भी को यह समझना होगा।
ग्रामीण समाज में सांस्कृतिक जुड़ाव ज्यादा होता है और आदिवासी समाज के लिए तो संस्कृति सर्वाधिक महत्वपूर्ण होती है। झारखंड आदिवासी अस्मिता के आधार पर बना हुआ राज्य है। अत: सरकार को विकास के लिए ऐसी योजनाएं बनानी होंगी जिसका आधार आदिवासी संस्कृति हो। कुल मिलाकर झारखंड सरकार को पत्थलगड़ी के गलत और सही के विवाद में न पड़कर इस सांस्कृतिक प्रतीक को अपनाना चाहिए। बड़े पैमाने पर ग्राम पंचायत को पत्थलगड़ी के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए। एक प्रशासनिक तंत्र को विकसित कर पत्थलगड़ी के माध्यम से रखी गई मांगों और सूचनाओं को सीधे सरकार से जोड़ा जाना चाहिए। अगर लोकतांत्रिक सरकार पत्थलगड़ी को सकारात्मक अर्थो में लेने का प्रयास करे तो इसके माध्यम से आदिवासी समाज के शोषण और जरूरतों की जो जानकारी आधुनिक मीडिया तथा सरकारी तंत्रों के माध्यम से उसे नहीं मिल पाती है वह इसके माध्यम से उसे मिलने लगेगी।
आदिवासियों और सरकार के मध्य सूचनाओं के परस्पर आदान-प्रदान न हो पाने के करण ही संवाद में गैप आ गया है। इसका लाभ उठाकर आदिवासी क्षेत्रों में विकास विरोधी तत्वों ने अपनी जड़ें जमा ली हैं। विकास के लिए संवाद अनिवार्य है। विशेषकर बात जब आदिवासी समाज के विकास की हो तो परंपरागत संचार माध्यम द्वारा संवाद सबसे बेहतर विकल्प है। आज झारखंड सरकार के पास एक अवसर है जब वह पत्थलगड़ी को संचार माध्यम के रूप में विकसित कर आदिवासी समाज को भी विकास के मार्ग पर अग्रसर कर सकती है।
(लेखक झारखंड केंद्रीय विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर हैं)