उच्च शिक्षा में सुधार की आवश्यकता, कुलपति के चयन में यूजीसी के नियमों की न हो अनदेखी
Improvement in Higher Education ध्यातव्य है कि विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति को नियुक्त करने का नियम विश्वविद्यालय अधिनियम से तय होता है। केंद्र सरकार की ओर से गठित चयन समिति इसके लिए कई नामों की संस्तुति करती है ।
नई दिल्ली [कैलाश बिश्नोई]। भारत में राज्य सरकारों द्वारा संचालित अधिकांश विश्वविद्यालयों के चांसलर यानी कुलाधिपति संबंधित राज्य के राज्यपाल होते हैं। हालांकि कुछ राज्यों- तेलंगाना और गुजरात में राज्यपाल को इनसे वंचित रखा गया है। इन दोनों ही राज्यों में राज्यपाल कुलपति की नियुक्ति तो कर सकते हैं, लेकिन राज्य सरकार की तरफ से प्रस्तावित किए गए लोगों को ही। इन दोनों राज्यों में जब विश्वविद्यालय स्थापना का कानून बना था, उसी समय कुलपति की नियुक्ति की ताकतें राज्यपाल को न देकर सरकार या उसके द्वारा गठित पैनलों को दी गई थी।
ध्यातव्य है कि विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति को नियुक्त करने का नियम विश्वविद्यालय अधिनियम से तय होता है। केंद्रीय विश्वविद्यालयों के मामले में केंद्रीय विश्वविद्यालय अधिनियम, 2009 से इसका निर्धारण होता है। राष्ट्रपति केंद्रीय विश्वविद्यालयों में विजिटर होने के साथ-साथ इन विश्वविद्यालयों में कुलाधिपति और कुलपति की नियुक्ति भी करते हैं। केंद्र सरकार की ओर से गठित चयन समिति इसके लिए कई नामों की संस्तुति करती है। केंद्रीय विश्वविद्यालयों को छोड़कर राज्य संचालित अन्य विश्वविद्यालयों में कुलपतियों की नियुक्ति में राज्यपाल की महत्वपूर्ण भूमिका होने के कारण अक्सर विवाद सामने आते रहे हैं। इस कारण कई राज्यों मसलन राजस्थान, महाराष्ट्र, बंगाल, केरल और ओडिशा में भी राज्य के विश्वविद्यालयों में नियुक्तियों को अपने नियंत्रण में लाने संबंधी प्रयास किए जा रहे हैं।
बंगाल सरकार ने विधानसभा में पश्चिम बंगाल विश्वविद्यालय अधिनियम (संशोधन) विधेयक-2022 पारित करके राज्यपाल की जगह मुख्यमंत्री को राज्य द्वारा संचालित विश्वविद्यालयों का कुलाधिपति बनाने का प्रविधान किया है। इस कदम के बाद शिक्षा जगत में बहस छिड़ गई है। राज्य सरकार का तर्क है कि यदि प्रधानमंत्री को केंद्रीय विश्वविद्यालय विश्वभारती का कुलाधिपति नामित किया जा सकता है तो मुख्यमंत्री राज्य के विश्वविद्यालयों का कुलाधिपति क्यों नहीं हो सकता है? हालांकि इससे विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता का सवाल भी जुड़ा हुआ है
नियुक्ति का मानदंड
यूजीसी (विश्वविद्यालयों और कालेजों में शिक्षकों एवं अन्य शैक्षणिक कर्मचारियों की नियुक्ति के लिए न्यूनतम योग्यता और उच्च शिक्षा में मानकों की मान्यता हेतु अन्य उपाय) विनियम, 2018 के अनुसार, आगंतुक/ कुलाधिपति ज्यादातर राज्यों में संबंधित समितियों द्वारा अनुशंसित नामों के पैनल में से कुलपति की नियुक्ति करेगा। इससे पूर्व यूजीसी ने वर्ष 2013 में तमाम विश्वविद्यालयों में कुलपति पद के लिए 10 वर्ष प्रोफेसर पद का अनुभव या इसके समकक्ष योग्यता को अनिवार्य कर दिया था। इसके बावजूद कई विश्वविद्यालय अपनी मनमर्जी चला रहे हैं और कुलपति के पद की योग्यता को कम या ज्यादा कर रहे हैं। यहां यह समझना आवश्यक है कि उच्च शिक्षण संस्थानों, विशेष रूप से जिन्हें यूजीसी द्वारा फंड प्राप्त होता है, उन्हें यूजीसी के नियमों का पालन करना अनिवार्य है। आमतौर पर केंद्रीय विश्वविद्यालयों के मामले में यूजीसी के नियमों का पालन बिना किसी रुकावट के किया जाता है, लेकिन कभी-कभी राज्य विश्वविद्यालयों के मामले में राज्यों द्वारा इसका विरोध किया जाता है। इसका कारण है विश्वविद्यालयों का स्वयं का अधिनियम। कुछ विश्वविद्यालयों में आलम यह है कि पद का विज्ञापन जारी न होने की वजह से कई अच्छे शिक्षाविद् इसके लिए आवेदन तक नहीं कर पाते हैं। कई बार यह देखने में आया है कि राज्य विश्वविद्यालयों में कुलपति के चयन में यूजीसी के नियमों की अनदेखी की जाती है। बिहार में कुलपति का चयन करने के लिए तीन सदस्यीय सर्च कमेटी का गठन किया जाता है। यह सर्च कमेटी कम से कम तीन और अधिकतम पांच नाम राज्यपाल के पास भेजती है। इन्हीं में से कुलपति का चयन किया जाता है।
भ्रष्टाचार की समस्या
कुलपतियों पर भ्रष्टाचार के मामले पिछले डेढ़-दो दशक में काफी बढ़े हैं। परीक्षा कराने से लेकर निर्माण कार्यो में टेंडर और अन्य कार्यो को लेकर कुलपति के निर्णयों पर सवाल खड़े होते रहे हैं। कभी कुलपति का पद बहुत ही गरिमापूर्ण हुआ करता था, लेकिन राजनीतिक हस्तक्षेप के बाद यह पद भी भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गया है। सरकार की ओर से अपनी पसंद के लोगों को कुलपति बनाए जाने के कारण अक्सर विवाद रहता है। सवाल है कि जिस पर यूनिवर्सिटी की गरिमा बनाए रखने की जिम्मेदारी हो, वही यदि ‘भ्रष्टाचार की गंगोत्री’ में डुबकी लगाने लगे तो शिक्षा व्यवस्था का क्या हश्र होगा? इसी क्रम में नवंबर में एक नया मामला मगध विश्वविद्यालय के कुलपति राजेंद्र प्रसाद का सामने आया था, जिनके आवास से छापेमारी के दौरान एक करोड़ से अधिक कैश बरामद हुए और साथ ही करोड़ों की संपत्ति का भी पता चला। बाद में उन्हें अपने पद को त्याग देना पड़ा। एक कड़वी सच्चाई यह भी है कि देश के विश्वविद्यालयों में भ्रष्टाचार काफी गंभीर है और शिक्षक, पदाधिकारी, कर्मचारी आदि इसमें आकंठ डूबे हैं। हमारी उच्च शिक्षा व्यवस्था के पिछड़ेपन की जड़ में भ्रष्टाचार का कैंसर है, जो उसे नष्ट करता रहा है। ऐसी स्थिति में हम विश्व स्तरीय उच्च शिक्षा की कल्पना कैसे कर सकते हैं?
आगे की राह
सनद रहे कि पहले राष्ट्रीय ज्ञान आयोग और फिर यशपाल कमेटी ने सिफारिश की थी कि वीसी वही हो, जिसका नाम राष्ट्रीय रजिस्ट्री में हो। उच्चतर शिक्षा के राष्ट्रीय आयोग के पास यह रजिस्ट्री होगी, यह इसकी अवधारणा थी। हर रिक्त पद के लिए पांच नामों की संस्तुति होगी। तब भी राज्यों ने स्वायत्तता का सवाल उठाया था। वर्ष 1964 में कोठारी आयोग ने सिफारिश की थी कि कुलपति जाने-माने शिक्षाविद होंगे। कोठारी आयोग ने संस्तुति की थी कि शिक्षा के इतर क्षेत्रों से सेवानिवृत्त होकर आए लोगों की कुलपति पद पर नियुक्ति उचित नहीं। यदि विशेष परिस्थिति में ऐसा कुछ करना पड़े तब भी उसे किसी को पुरस्कृत करने या पद देने के लिए उपयोग न किया जाए। विश्वविद्यालय के कुलपतियों की योग्यता पर गजेंद्र गड़कर कमेटी ने प्रकाश डालते हुए कहा था कि कुलपति अकादमिक क्षेत्र का विशिष्ट योग्यता वाला विद्वान होना चाहिए। उसमें स्पष्ट दूरदर्शिता, दक्ष नेतृत्व के गुण, प्रबंधन की क्षमता एवं निर्णय लेने की योग्यता होनी चाहिए। इन सभी की राय यही है कि इस पर योग्य विद्वान को बिठाना चाहिए।
इसके बाद गठित मदनमोहन पुंछी आयोग ने राज्यपाल द्वारा कुलपतियों की नियुक्ति न करने संस्तुति की थी। गुजरात, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों में राज्य संचालित विश्वविद्यालयों के कुलपति को वहां के मुख्यमंत्री नियुक्त करते हैं। यहां एक रोचक प्रसंग का उल्लेख आवश्यक है। विगत वर्ष केरल के राज्यपाल ने राज्य के मुख्यमंत्री से अनुरोध किया कि वहां के विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति पद के संविधान-प्रदत्त उत्तरदायित्व को अपेक्षित तरीके से निभा नहीं पाने की वजह से उचित होगा कि मुख्यमंत्री खुद ही उत्तरदायित्व लेकर राज्य के सभी विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति बन जाएं और उन्हें इस दायित्व से मुक्त कर दें। अब कई राज्य विश्वविद्यालयों के कुलपति सीधे मुख्यमंत्री द्वारा नियुक्त करवाने की दिशा में आगे बढ़ चुके हैं तो पूरे देश में भी यही व्यवस्था क्यों नहीं अपनाई जानी चाहिए? लिहाजा पुंछी आयोग की संस्तुति और मौजूदा संवैधानिक प्रविधानों के मद्देनजर देशभर में एक समान नीति अपनाने की आवश्यकता है।
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के शोध अध्येता हैं)