पैरालिंपिक में खिलाड़ियों की उपलब्धियां समाज में दिव्यांगों के प्रति सकारात्मक सोच को बल देंगी
उम्मीद है कि शारीरिक अक्षमता के शिकार खिलाड़ियों की पैरालिंपिक में पराई धरती पर तिरंगे का मान बढ़ाने वाली उपलब्धियां समाज में दिव्यांगों के प्रति सकारात्मक सोच को बल देंगी। इससे खिलाड़ियों को कुछ दिनों का स्टार बनाने के बजाय हमेशा के लिए समाज के सोच में बदलाव आएगा।
डा. मोनिका शर्मा। टोक्यो में चल रहे पैरालिंपिक में भारत के खिलाड़ी इतिहास रच रहे हैं। 968 में पहली बार भारत ने पैरालिंपिक में भाग लिया था। मन की मजबूती के बल पर अविश्वसनीय प्रदर्शन कर रहे दिव्यांग खिलाड़ी विश्व पटल पर आयोजित इस खेल प्रतियोगिता में देश का खूब मान बढ़ा रहे हैं, अपनी पहचान गढ़ रहे हैं। शारीरिक प्रतिकूलताओं से जूझकर जीतने वाले खिलाड़ियों की सफलता हर ओर सराही जा रही है। ऐसे में यह सवाल लाजिमी है कि शारीरिक अक्षमता से जूझ रहे लोगों को आम जीवन में सहज सहयोग और सराहना क्यों नहीं मिलती?
आखिर क्यों कामयाबी के शिखर पर पहुंचने के बाद ही जिंदगी जीने की सुगमता और सहज स्वीकार्यता उनकी झोली में आती है? किसी भी क्षेत्र में कमाल कर दिखाने के बाद पहचान और मान मिलना सही है, पर आम नागरिकों की तरह जीते हुए अनगिनत मुश्किलें उनके हिस्से क्यों हैं? अब समाज को दिव्यांग खिलाड़ियों की सफलता पर शाबाशी देने के साथ ही सोच बदलने की दरकार है तो सरकार को बुनियादी सुविधाएं उनकी पहुंच में लाने की। देश में अलग-अलग श्रेणियों में दिव्यांगों की आबादी दो करोड़ से ज्यादा है। इनमें 36.3 फीसद दिव्यांग ही कार्यरत हैं।
अनुमान है कि अगर कौशल प्रशिक्षण कार्यक्रमों के जरिये उपयुक्त प्रयास नहीं किए गए तो 2022 तक बेरोजगार दिव्यांगजनों की संख्या एक करोड़ को पार कर जाएगी। इतना ही नहीं परिवार बसाने से लेकर सुरक्षित परिवेश पाने तक भी इनकी परेशानियां अनगिनत हैं।दिव्यांजनों के प्रति हर मोर्चे पर कथनी और करनी के अंतर की मानसिकता से बाहर आने जरूरत है। आज भी हालात ऐसे हैं कि कई दिव्यांगजन और उनके परिवार जीवन से तो नहीं हारते, पर समाज, परिवेश और यहां तक कि अपनों के भी पीड़ादायी व्यवहार उनका जीना दुश्वार कर देते हैं।
दिव्यांगजनों का उपहास उड़ाने और उनके खिलाफ असभ्य भाषा का इस्तेमाल आम है। घर हो या बाहर उनको सहानुभूति मिलती है, पर सहयोग नहीं। समाज में ऐसे लोगों की कमी नहीं, जो उन्हें आश्रित इंसान के रूप में ही देखते हैं। जबकि दिव्यांगजन भी हमारे समाज का ही हिस्सा हैं। समझना मुश्किल नहीं कि भारत में जब आम खिलाड़ियों के लिए संघर्षपूर्ण स्थितियां हैं तो शारीरिक अशक्तता से जूझ रहे इन चेहरों के सामने कितनी मुश्किलें आती होंगी। ऐसे में मेडल जीतने वाले दिव्यांग खिलाड़ियों को राज्य सरकारों द्वारा इनाम देना सराहनीय है।
उम्मीद है कि शारीरिक अक्षमता के शिकार खिलाड़ियों की पैरालिंपिक में पराई धरती पर तिरंगे का मान बढ़ाने वाली उपलब्धियां समाज में दिव्यांगों के प्रति सकारात्मक सोच और स्वीकार्यता को बल देंगी। इससे दिव्यांग खिलाड़ियों को कुछ दिनों का स्टार बनाने के बजाय हमेशा के लिए समाज के सोच में बदलाव आएगा।
(लेखिका सामाजिक मामलों की जानकार हैं)