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कामकाजी महिलाओं की सफलता की राह में कम नहीं है अड़चनें, फिर भी बढ़ रही हैं आगे

एक सर्वे के अनुसार मां होने के कारण योग्यता और काम में कटौती के कारण औसत कामकाजी महिला को साल में कई लाख रुपए का आर्थिक नुकसान होता है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Sat, 19 Sep 2020 01:01 PM (IST)Updated: Sat, 19 Sep 2020 01:03 PM (IST)
कामकाजी महिलाओं की सफलता की राह में कम नहीं है अड़चनें, फिर भी बढ़ रही हैं आगे
कामकाजी महिलाओं की सफलता की राह में कम नहीं है अड़चनें, फिर भी बढ़ रही हैं आगे

नई दिल्‍ली, यशा माथुर। कामकाजी महिलाएं हर धुरी पर अपनी काबिलियत साबित करते हुए आगे बढ़ गई हैं। इसके लिए उन्होंने घर और बाहर विपरीत परिस्थितियों को झेला है। कार्यस्थल पर आज भी उन्हें कई प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ता है, लेकिन कहीं वे आवाज उठाती हैं और कहीं इसके नकारात्मक प्रभाव के बारे में सोचकर आगे बढ़ जाती हैं। सफलता की राह में अड़चनें कम नहीं, लेकिन इनको पार कर गर्व से सिर उठा कर मंजिल की ओर बढ़ते रहना सीख लिया है इन्होंने...

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नई नियुक्ति हुई थी सुप्रिया की। आत्मविश्वास से भरपूर सुप्रिया ने जब पहले दिन दफ्तर में दस्तक दी तो उसे अपने बॉस का रुख कुछ रूखा-रूखा सा लगा, लेकिन यह सोचकर उसने मन में इत्मीनान कर लिया कि कोई ऑफिशियल या घरेलू मसला होगा, लेकिन कुछ दिनों बाद पता लगा कि वह अपने विभाग में किसी पुरुष कर्मचारी की नियुक्ति चाहते थे और वहां आ गईं सुप्रिया। दरअसल बॉस के जेहन में बैठा हुआ था कि विभाग में लड़की आ रही है, क्या काम कर पाएगी? जब सुप्रिया को यह जानकारी मिली तो उसने लगन से काम करना शुरू किया और हर मुश्किल से मुश्किल कार्य को सही समय पर और कुशलता से निभाकर यह साबित किया कि वह लड़की जरूर है, लेकिन किसी पुरुष साथी से कम तो हरगिज नहीं। इसके बाद तो बॉस का उस पर विश्वास गहराता गया और वह बिना किसी हिचक के उसे जिम्मेदारियां देने लगे।

साबित करना पड़ता है बार-बार : सुप्रिया की तरह हर कार्यस्थल पर, हर कदम पर महिलाओं को खुद को बार-बार साबित करना पड़ता है। उनकी काबिलियत पर एक प्रश्न चिन्ह होता ही है। एचआर मैनेजर भावना कहती हैं कि हमें डबल प्रूव करना पड़ता है। हम कितनी ही मेहनत से काम करें, हमें कम ही आंका जाता है। 2014 के सिविल सेवा परिणामों में प्रथम स्थान प्राप्त करने वाली इरा सिंघल कैडबरी में स्ट्रेटजी मैनेजर की हैसियत से काम कर चुकी हैं और इन दिनों दिल्ली के महिला एवं बाल कल्याण विभाग में ज्वाइंट डायरेक्टर पद पर कार्यरत हैं। वह कहती हैं, मुझे कई बार खुद को साबित करना पड़ा है। सिविल सेवा में तीन बार अमान्य घोषित किया गया, क्योंकि मेरी अपंगता उनकी लिस्ट से मैच नहीं करती थी। तब मुझे कोर्ट जाना पड़ा। चौथी बार मैंने आईएएस की परीक्षा में टॉप किया। जब महिलाएं खुद को बार-बार साबित करती हैं तभी उनकी बात सुनी जाती है।

धारणाएं तोड़ने की है बारी : महिलाओं के प्रति कुछ धारणाएं आम हो गई हैं, जैसे इतना मुश्किल काम इनसे हरगिज नहीं होगा। देर तक तो रुकेंगी नहीं। इनके तो घर की मुश्किलें चलती रहेंगी। कभी बच्चा बीमार तो कभी पति। इनका टाइम तो गॉसिप में ही बीतेगा। इन सब धारणाओं को तोड़कर आगे बढ़ती महिलाएं कह रही हैं कि अब हमारे रास्ते में इन अवरोधों को मत आने दें।

एक मल्टीनेशनल कंपनी में काम करने वाली रितु कहती हैं, महिला हैं तो छुट्टी ज्यादा लेंगी, यह एक धारणा है, लेकिन जब बॉस का बच्चा बीमार पड़ता है तो वह भी तो अपनी पत्नी को ही अवकाश लेने के लिए बोलते हैं। महिलाएं बहुत ही कैलकुलेटेड होती हैं। जब तक बहुत आवश्यक न हो गैरहाजिर नहीं होतीं साथ ही अपनी जिम्मेदारियां बखूबी समझती हैं। अब उन्हें पुराने घिसे-पिटे लफ्जों में कैद रखना ठीक नहीं। एक सर्वे के अनुसार मां होने के कारण योग्यता और काम में कटौती के कारण औसत कामकाजी महिला को साल में कई लाख रुपए का आर्थिक नुकसान होता है।

शादी को लेकर प्रश्न : यूं तो लड़कियों के शादी न करने पर समाज भी सवाल उठाता है, लेकिन कार्यस्थलों पर वे चर्चा का विषय बन जाती हैं। सहकर्मी बात करते हैं कि पता नहीं शादी क्यों नहीं करतीं? तीस पार कर गईं हैं, लेकिन घर बसाने का इरादा नहीं लगता। इस तरह की कहानियां जब पैैंतीस साल की अविवाहित साक्षी के कानों में पड़ती हैं तो उन्हें बहुत निराशा होती है। वह कहती हैं, शादी करना या न करना मेरा निजी मामला है। कोई लड़का बड़ी उम्र तक शादी नहीं करता है तो उससे कहा जाता है कि सिंगल रहकर मजे कर रहे हो और जब लड़कियां शादी को प्राथमिकता नहीं देतीं तो उनसे पूछा जाता है कि माजरा क्या है? यह दोहरा रवैया बहुत दुख देता है। जब हम दफ्तर के काम में खरे हैं तो किसी को हमारी निजी जिंदगी से क्या लेना-देना।

कहीं बेहतर तो कहीं बदतर : जापान में कई कंपनियों ने जब महिलाओं के लिए अलग ड्रेस कोड और पुरुषों के लिए कोई बाध्यता नहीं, जैसे नियम लागू किए तो उनकी काफी आलोचना हुई। यही नहीं यहां कई कंपनियों ने महिला रिसेप्शनिस्ट के चश्मा पहनकर आने पर काम से लौटा दिया, जबकि पुरुष कर्मचारियों के साथ ऐसा नहीं था। कुछ एयरलाइंस और रेस्तरां ने भी महिला कर्मचारियों को चश्मा लगाने से मना किया। इन कंपनियों का तर्क था कि नजर वाले चश्मे से महिलाओं की सुंदरता प्रभावित होती है। इससे उनके ग्राहकों पर गलत असर पड़ता है। जापान में ही एक कंपनी ने महिलाओं के लिए मेकअप करना भी अनिवार्य कर दिया और महिलाओं को अपना वजन कम करने के लिए कहा ताकि वे आकर्षक बनी रहें।

जापानी महिलाओं ने जब ऊंची एड़ी की हील पहनने को मजबूर करने वाली प्राइवेट कंपनियों के खिलाफ ऑनलाइन याचिका अभियान शुरू किया तो जापान के श्रम मंत्रालय ने एक नियम बनाया ताकि कंपनियों की ऐसी मनमानी पर रोक लगाई जा सके। ऐसा जापान में जरूर है, लेकिन नीदरलैंड्स में रह रहीं लेखक व पेंटर मालिनी नायर ने महिलाओं के मुद्दे उठा रही संस्था हर वल्र्ड के वेब टॉक शो में बताया कि विश्व स्तर पर परिस्थितियां ठीक हैं। नीदरलैंड्स में रेजीडेंट कार्ड के लिए आवेदन करते समय पुरुष या महिला बताने की जरूरत नहीं पड़ती। यहां समाज में सभी की स्थिति समान है।

आवाज उठाना माना जाता है गलत : महिला एवं बाल कल्याण विभाग दिल्ली की ज्वाइंट डायरेक्टर इरा सिंघल ने बताया कि अगर आप वह लड़की हैं, जो आवाज उठाती है, अपनी मुश्किलों पर बोलती हैं तो आपके लिए कहा जाता है कि यह तो प्रॉब्लम क्रिएटर है। वे तेज मानी जाती हैं और उन्हें गलत माना जाता है। उनके लिए अवसर वैसे ही कम हो जाते हैं। महिलाओं को विरोध करने की स्वीकृति नहीं है।

अगर कोई लड़की बोल दे कि उसके साथ गलत हो रहा है तो उसे और परेशान करने वाले काम दे दिए जाते हैं, मुश्किलें और बढ़ा दी जाती हैं। यह सब देखकर महिलाएं सोचती हैं कि चलो छोड़ो और आगे बढ़ो। वैसे मैंने अभी तक कॉरपोरेट और सरकारी संस्थानों में लिंगभेद का सामना तो नहीं किया है, लेकिन इतना जरूर महसूस किया है कि कुछ काम ऐसे हैं जिनके लिए सोचा जाता है कि पुरुषों को ही दिया जाए। अभी भी महिलाओं को सभी अवसर नहीं मिलते हैं। चाहे उनकी मेरिट हो, चाहे प्रतिभा। कमिश्नर बोलते हैं तो महिला की तस्वीर सामने नहीं आती। डीएम बोलते हैं तो भी पुरुष की ही कल्पना की जाती है। इंफास्ट्रक्चर से लेकर नीतियां तक महिलाओं के मद्देनजर नहीं बनाई गई हैं। इसके कारण महिलाएं वर्कफोर्स से दूर रह जाती हैं।

सही निगाहों की है दरकार : अभिनेत्री व गायिका सुचित्रा कृष्णामूर्ति ने बताया कि जब उम्र कम होती है तो गंदी नजरों से बचना काफी मुश्किल होता है। फिल्म इंडस्ट्री में ही नहीं सब जगह महिलाएं अपनी सुरक्षा का खतरा महसूस करती हैं। दूसरे, हमारे फील्ड में महिलाओं को अच्छा दिखना होता है। शो बिजनेस में महिलाओं को हक नहीं है कि उनकी उम्र बढ़े।

साठ साल के हीरो बिना किसी कॉमप्लेक्स के आराम से काम कर रहे होते हैं, लेकिन उम्र को लेकर महिलाएं हीनभावना महसूस करने लग जाती हैं। हालांकि अब पस्थितियां बहुत बदल ही हैं। समय के साथ खुद को ढाल भी लेना चाहिए। मेरी उम्र की दोस्त काम न मिलने की शिकायत करती हैं तो मैं उनसे कहती हूं कि अगर आप पैंतालीस की उम्र में हैं और पच्चीस की उम्र का काम चाहती हैं तो वह नहीं मिलेगा। अपनी बढ़ती उम्र की असलियत को स्वीकार करना ही पड़ेगा।

आंकड़े बोलते हैं : अमरीका के प्यू रिसर्च सेंटर के हालिया आंकड़े बताते हैं कि दस में से आठ कामकाजी महिलाएं अपने काम से खुश हैं और कहती हैं कि इससे कामकाजी होने पर उन्हें आत्मनिर्भर होने का अहसास और मानसिक दृढ़ता मिलती है, लेकिन एक चौथाई महिलाओं ने यह भी माना कि महिला होने के कारण काम के प्रति उनकी प्रतिबद्धता पर सवाल उठाकर उन्हें पदोन्नति व महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां नहीं दी जातीं। बीस फीसद ने माना कि कंपनी या बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स में उन्हीं महिलाओं को शामिल किए जाने की संभावना होती है, जो बच्चों की जिम्मेदारियों से मुक्त हो चुकी हैं।


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