भारत में जिन्ना की तस्वीर का भला क्या काम, इसके लगे रहने की कोई वजह नहीं
आज जो तबका इस विवाद में जिन्ना के साथ खड़ा नजर आ रहा है, वह गांधी का समर्थक होने का दावा भी करता है।
अवधेश कुमार। यह भारत देश है जहां मुद्दा कितना भी सही क्यों न हो उसके पक्ष के साथ विपक्ष में भी लोग खड़े हो ही जाते हैं। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के छात्र संघ कार्यालय में लगी मोहम्मद अली जिन्ना की तस्वीर पर ऐसा ही हो रहा है। अलीगढ़ के भाजपा सांसद ने विश्वविद्यालय के कुलपति को पत्र लिखकर मांग किया कि वहां से जिन्ना की तस्वीर हटाई जाए। कायदे से इस पर विवाद होना ही नहीं चाहिए था। जिन्ना की तस्वीर बिना किसी शोर-शराबे के हट जानी चाहिए थी, किंतु इसके उलट हुआ। छात्र संघ के अध्यक्ष ने कहा कि जिन्ना की तस्वीर नहीं हटेगी। उनका तर्क है कि विश्वविद्यालय ने 1938 में जिन्ना एवं महात्मा गांधी दोनों को आजीवन सदस्यता दी थी। इस तरह के कुतर्क के बाद हंगामा होना ही था। इस समय यह देशव्यापी मुद्दा बना हुआ है। लोगों को इस प्रश्न का उत्तर मिल ही नहीं रहा कि आखिर आजाद भारत के किसी विश्वविद्यालय के किसी भी भवन में मोहम्मद अली जिन्ना की तस्वीर टंगे होने और उसे टांगे रखने पर अड़ने का मतलब क्या है? इनको जिन्ना में ऐसा क्या दिखता है? क्या ये जिन्ना के विचारों के समर्थक हैं?
खतरनाक मानसिकता
अगर कोई जिन्ना के विचारों का समर्थक है तो फिर यह ऐसी खतरनाक मानसिकता है जिसका कठोरता से दमन करने की आवश्यकता है, लेकिन दूसरी ओर देश में अपने को बुद्धिजीवी मानने वालों का एक तबका खड़ा हो गया है। वह अजीब-अजीब तर्क दे रहा है। कोई कह रहा है कि केवल जिन्ना को ही भारत विभाजन का जिम्मेवार क्यों माना जाए? उसके लिए अनेक लोग दोषी थे जिसमें कांग्रेस के उस समय के बड़े नेता भी शामिल हैं। वे कई पुस्तकों का उद्धरण दे रहे हैं। भाजपा के पूर्व वरिष्ठ नेता जसवंत सिंह की पुस्तक का आवरण पृष्ठ एवं उनकी कुछ पंक्तियां इस समय सोशल मीडिया पर तेजी से दौड़ रही हैं। बात ठीक है जसवंत सिंह ही नहीं भारत विभाजन पर ऐसी कई पुस्तकें हैं जिनमें उस समय के घटनाक्रम का हवाला देकर यह स्थापित किया गया है कि कांग्रेस के वरिष्ठ नेतागण भी भारत विभाजन के दोषी हैं। किंतु इन लोगांे से यह पूछा जाना चाहिए कि क्या हम भारत में पं. नेहरू और सरदार पटेल को जिन्ना के समतुल्य खड़ा कर सकते हैं? क्या जिन्ना ने 1940 के बाद हिंदू मुस्लिम सांप्रदायिकता का जो तीखा विष फैलाया उसमें भी ये नेता भागीदार थे?
अलग से कुछ बताने की आवश्यकता नहीं
जिन्ना के बारे में इतना कुछ लिखा जा चुका है कि अलग से कुछ बताने की आवश्यकता नहीं। यह बात बिल्कुल सही है कि जिन्ना आरंभ में भारत की आजादी के लिए अंग्रेजों के विरुद्ध अहिंसक संघर्ष करने वाले प्रमुख नेताओं में शुमार थे। उनके अंदर क्या चल रहा था कोई नहीं जानता, लेकिन वे साथ तो कांग्रेस के नेताओं के थे। मोतीलाल नेहरू से वे मात्र सात वर्ष छोटे थे। इस नाते वे वरिष्ठ भी थे। किंतु उन्होंने अपने बाद के जीवन में जो किया वो ही हमारे लिए मायने रखता है। वे बाद के दिनों में अखंड भारत की आजादी के समर्थक नहीं थे, उनकी पूरी लड़ाई अंग्रेजों के साथ मिलकर किसी तरह भारत को हिंदू-मुस्लिम खूनी जंग में ढकेल देने की थी ताकि यह स्थापित किया जा सके कि ये दोनों समुदाय एक साथ नहीं रह सकते और पाकिस्तान का निर्माण हो सके। अंग्रेज दोनों समुदायों में फूट डालने का जो षड्यंत्र कर रहे थे जिन्ना उसके मुख्य हथियार बन गए। जब लंबे संघर्ष करने के बाद आजादी पाने का समय आया तो जिन्ना ने देश को हिंदू -मुस्लिम संघर्ष में फंसाकर पाकिस्तान के निर्माण का आधार तैयार किया। इस तरह वे हमारी आजादी के संघर्ष के खलनायक बन गए।
1946 का डायरेक्ट एक्शन
1946 के डायरेक्ट एक्शन के आह्वान को कौन भूल सकता है जब उस समय का पूरा बंगाल, जिसमें आज का बंगलादेश, बिहार और पूवरेत्तर के कुछ क्षेत्र शामिल है, खून से सन गया। आप इतिहास के जितने पन्ने पलटकर सामने रख दीजिए, क्या इस तथ्य को कोई नकार सकता है कि अगर जिन्ना नहीं होते तो भारत के दो टूकड़े नहीं होते? आजाद भारत में जिन्ना को दिल से सम्मान मिलने का कोई कारण नहीं होना चाहिए। वास्तव में बिना तस्वीर टंगे होने का समर्थन किए जितने तथ्य और तर्क दिए जा रहे हैं वे शर्मनाक हैं। एक जिन्ना की तस्वीर हटाने की वाजिब मांग के समानांतर इस तरह के तर्क देने वाले आखिर चाहते क्या हैं? क्या वो ये कह रहे हैं कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में जिन्ना की तस्वीर का लगे रहना सही है? ऐसा भी वे स्पष्ट तौर पर तो नहीं बोल रहे हैं।
बीच का कोई स्थान ही नहीं
आप या तो तस्वीर टंगे होने के समर्थन में हो सकते हैं या विरोध में। इसमें बीच का कोई स्थान ही नहीं है। जो लोग गांधी जी का नाम ले रहे हैं वे न भूलें कि गांधी जी को तो आज पूरा विश्व स्वीकार कर रहा है। वे विश्व व्यक्तित्व बन चुके हैं। क्या यही सम्मान जिन्ना को मिल सकता है? पाकिस्तान में उन्हें कायद-ए-आजम अवश्य माना, लेकिन पाकिस्तान के बाहर जिन्ना को कोई महत्व नहीं देता। यहां तक कि पाकिस्तान में भी ऐसे लोग हैं जो मजबूरी में पाकिस्तान का भाग बन गए, लेकिन जिन्ना के द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत से सहमत नहीं हैं। आतंकवादियों ने तो उनके घर तक में विस्फोट कर दिया। सीधी और साफ बात है। जिन्ना की तस्वीर भारत के किसी मान्य संस्थान में स्वीकार्य नहीं हो सकता।
देश की नीतियों के साथ चलना है
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय एक केंद्रीय विश्वविद्यालय है। उसे देश की नीतियों के साथ चलना है। वह देश के अंदर कोई अलग देश नहीं है जहां किसी की मनमानी चले। पूरे देश में इसके खिलाफ जो आक्रोश है उसे वहां के प्रशासन एवं छात्रसंघ के पदाधिकारियों को समझना होगा। अगर वे स्वयं ऐसा नहीं करते तो केंद्र सरकार भी वहां पहल कर सकती है। कानून और व्यवस्था राज्य का विषय है। जिन्ना की तस्वीर पर वहां कानून और व्यवस्था की समस्या खड़ी हो सकती है। इस आधार पर राज्य को भी वहां हस्तक्षेप करने का अधिकार है। वहां से जिन्ना की तस्वीर स्थाई रूप से हटनी चाहिए। अगर कहीं और भी जिन्ना की तस्वीरें हों तो उनका भी अंत इसी प्रसंग के साथ हो जाना चाहिए।
[वरिष्ठ पत्रकार]