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जानें, चीन की वो चालें जिससे NSG में भारत को नहीं मिली सदस्यता

चीन ने भले ही एनएसजी में भारत का प्रवेश रोक दिया हो लेकिन एमटीसीआर में सदस्यता भारत की बड़ी जीत है।

By Rajesh KumarEdited By: Published: Fri, 01 Jul 2016 07:50 AM (IST)Updated: Fri, 01 Jul 2016 12:26 PM (IST)

नई दिल्ली। एक तरफ भारत ने जहां परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (एनएसजी) में अपनी दावेदारी को लेकर जो कूटनीतिक प्रयास किए थे उसकी वजह से इसमें कोई शक नहीं की काफी हद तक सफलता मिली। लेकिन, भारत के पड़ोसी चीन ने जिस तरह ना सिर्फ खुलेआम भारत की सदस्यता का विरोध किया बल्कि भारत के खिलाफ लॉबिंग कर कई देशों को भारत की दावेदारी का विरोध करने को कहा ये साफ दर्शाता है कि कैसे चीन भारत की राह में सबसे बड़ा रोड़ा बना। जिसने ना सिर्फ खुद विरोध किया बल्कि और कई देशों से भी भारत की एनएसजी सदस्यता की दावेदारी का विरोध करने को कहा।

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हैरानी की बात ये हैं कि साल 2004 में खुद चीन एनएसजी का सदस्य बना है। लेकिन चीन अब भारत को एनपीटी के बहाने किसी भी कीमत पर एनएसजी सदस्य ना बनने देने पर अमादा है।

हालांकि, मिसाइल टेक्नॉलोजी रैशीम (एमटीसीआर) में 27 जून को एक कार्यक्रम के दौरान विदेश सचिव एस. जयशंकर के दस्तखत करते ही भारत इसका 35वां सदस्य बन गया। यह भारत के लिए एक गर्व का पल था क्योंकि इस समूह की स्थापना साल 1987 में ही की गई थी जिसका मक़सद भारत और ऐसे अन्य देशों को परमाणु तकनीक का हस्तांतरण रोकना था ताकि वह परमाणु हथियार ना बना सकें।

एमटीसीआर में सदस्यता बड़ी जीत

इस मिसाइल टेक्नॉलोजी रैशीम में भारत का प्रवेश इसलिए बड़े मायने रखता है क्योंकि कई बार चीन की तरफ से इसको लेकर दावेदारी के बावजूद वह इसका आज तक सदस्य नहीं बन पाया। भारत को परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (एनएसजी) पर मिली नाकामी के बाद मौन भारत सरकार के लिए एमटीसीआर में सदस्यता मिलने से भारत के कूटनीतिज्ञ और वैज्ञानिक समूह बेहद खुश हैं।

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48 सदस्यों वाले एनएसजी समूह का गठन 1974 में भारत की तरफ से किए गए पहले परमाणु परीक्षण के फौरन बाद किया गया और इसमें कई ऐसे कड़े नियम जोड़े गए ताकि इसके सदस्य देशों को परमाणु अप्रसार संधि (एनपीटी) पर दस्तखत ना करनेवाले देशों के साथ परमाणु डील करने से रोका जा सके।

एनपीटी पर दस्तखत ना करने को मुद्दा बनाया

इस साल मई में आवेदन लगाने के बाद पिछले हफ्ते सियोल में 20 जून से 24 जून तक चली एनएसजी की वार्षिक अधिवेशन के दौरान भारत को एनएसजी में अपनी सदस्यता के लिए कड़ी मशक्कत करनी पड़ी। इसके लिए भारत ने पुरजोर कोशिशें की और आम सहमित बनाने का भरपूर प्रयास किया। लेकिन, साल 2004 में एनएसजी का सदस्य बने चीन ने भारत के मंसूबों पर यह कह कर पानी फेर दिया कि इसमें केवल एनपीटी पर हस्ताक्षर करनेवाले देश ही इसका सदस्य हो सकता है।

एनएसजी में 2008 में भारत को मिली विशेष छूट

यद्यपि, भारत-अमेरिका के बीच ऐतिहासिक परमाणु करार के बाद साल 2008 में एनएसजी ने जो विशेष छूट दी थी उसके बाद इसके सदस्य देश भारत के साथ व्यापार कर सकते हैं। ऐसे में इस बात पर थोड़ा संदेह है कि सियोल में जो नतीजे आए हैं वह भारतीय कूटनीतिक प्रयासों पर तमाचा है।

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एनएसजी असफलता को विरोधी दलों ने मुद्दा बनाया

हालांकि, एनएसजी पर असफलता के बाद विरोधी दलों ने सीधे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को अपने निशाने पर ले लिया और इसे गलत समय पर तेज कूटनीतिक प्रयास करार दिया। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने ट्वीट करते हुए लिखा- जिस तरह से एनएसजी पर असफलता मिली यह मोदी की असफल कूटनीति है।

ऐसे में अब सवाल ये उठाया जा रहा है कि एनएसजी में भारत की सदस्यता को लेकर दावेदारी क्या ठीक है जब पहले से ही भारत को एनएसजी से विशेष छूट मिली हुई है? इसके साथ ही सवाल ये भी उठता है कि क्यों भारत एनएसजी की पूर्ण सदस्यता के लिए इतना बेचैन है? और क्या भारत को जमीन तैयार कर पाएगा और एनएसजी पर विरोध कर रहे सभी देशों को मना पाएगा ये एक बड़ा सवाल बना हुआ है।

अब सवाल उठता है कि :

क्या भारत को एनएसजी में सदस्यता के लिए अपना दावा करना चाहिए था?

जानकारों के मुताबिक, सबसे बड़ी आलोचना इस बात को लेकर हो रही है कि जब भारत को पहले से ही एनएसजी में विशेष छूट मिली हुई है तो फिर भारत को ऐसे दोयम दर्जे की सदस्यता के लिए इतनी कड़ी मशक्कत करनी की कोई जरुरत नहीं थी क्योंकि, वह भारत को कोई खास विशेषाधिकार नहीं देगा। नवंबर 2010 में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से वादा किया था कि एनएसजी में पूर्ण सदस्यता दिलाने के साथ ही तीन अन्य समूहों- एमटीसीआर, ऑस्ट्रेलिया ग्रुप और वॉस्सेनार एरेंजमेंट के लिए वह प्रयास करते रहेंगे।

सबसे बड़ी बात ये है कि साल 2011 से मनमोहन सिंह चारों समूहों में सदस्यता के लिए प्रयास कर रहे थे लेकिन उनका प्रयास कई कारणों से परवान नहीं चढ़ सका। लेकिन, मोदी सरकार ने उन चारों समूहों की बजाय मोदी सरकार ने इसे प्रथामिकता देते हुए एनएसजी और एमटीसीआर को सूची में पहले स्थान पर रखा।

एनएसजी के मुद्दे पर साल 2008 में यूपीए-1 सत्ता में थी तत्कालीन सरकार ने ये दावा किया था कि उन्हें विशेष छूट दी गई है। लेकिन, तीन साल बाद स्थित विपरित हो गई जब यूपीए-2 सत्ता में आई। साल 2011 में एनएसजी में संशोधन किया गया और अपने सदस्य देशों के लिए गाइडलाइंस में कुछ परिवर्तिन किए गए। जिसका मकसद उन देशों को परमाणु तकनीक देने से रोकना था जिन्होंने एनपीटी पर दस्तखत नहीं किए थे।

साल 1968 में एनपीटी की शुरूआत से ही भारत ने इसे अन्यायपूर्ण और पक्षपातपूर्ण करार देते हुए इस पर दस्तखत करने से इनकार कर दिया। जाहिर है ऐसे में निशाने पर दिल्ली ही थी। हालांकि, भारत के कड़े विरोध के बाद अमेरिका, रूप और फ्रांस ने एक बयान जारी करते हुए साफ किया कि वह उन समझौतों के साथ खड़े हैं और भारत को परमाणु ईंधन के लिए एनएसजी गाइडलाइंस के अनुरूप सहयोग करन को तैयार है।

एनएसजी में सदस्यता की क्यों है जल्दबाजी?

विदेश मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारी के मुताबिक, एनएसजी में भारत की सदस्यता इसलिए जरूरी हो गया क्योंकि उसके दो कारण हैं- पेरिस जलवायु परिवर्तन सम्मेलन और 2016 के दिसंबर में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के कार्यकाल का अंत होना। ऐसे में भारत ने जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में जो स्वच्छ ऊर्जा को लेकर बढ़चढ़ कर दावे किए थे उसके लिए उसे जाहिर तौर पर परमाणु ऊर्जा की जरुरत होगी।

ऐसे में पीएम मोदी और उनकी टीम सौर ऊर्जा से ज्यादा परमाणु ऊर्जा को बढ़ाने पर जोर दे रही है ताकि निर्धारित लक्ष्य को पूरा किया जा सके। इस समय परमाणु ऊर्जा संयंत्र से केवल 6000 मेगावट ही बिजली उत्पादन हो रहा है जो कि भारत की कुल जरूरत का सिर्फ तीन फीसदी है। मोदी की योजना 2032 तक परमाणु बिजली को 63,000 मेगावॉट तक बढ़ाना है।

चीन ने किया ऐसे विरोध

जिस वक्त विदेश सचिव एस. जयशंकर और संयुक्त सचिव अमनदीप सिंह एनएसजी अधिवेशन में हिस्सा लेने सियोल के लिए निकले तो उन्हें विश्वास था कि अगर चीन ने अपनी बातों पर कायम रहा तो भारत मिशन में सफल हो जाएगा। लेकिन, वह कोई मौका नहीं लेना चाहते थे। इसलिए उन्होंने एनएसजी सदस्यों को पांच भागों में बांट दिया। भारत के मुख्य समर्थक थे- अमेरिकी, रूस, जापान, कनाडा, ब्रिटेन, जर्मनी और ऑस्ट्रेलिया। ये सभी ना सिर्फ भारत को भारित को अपना समर्थन दे रहे थे बल्कि दूसरों को भी भारत के पक्ष में आने के लिए प्रेरित कर रहे थे।

उसके बाद दूसरा ग्रुप पूर्वी यूरोपीय देश, मध्य एशिया और कुछ पश्चिमी यूरोप के जैसे नीदरलैंड्स और बेल्जियम था जिन्होंने भारत का समर्थन किया। इस तरह भारत को कुल 48 में से 38 देशों का समर्थन मिला।

जो 10 देश बचे हुए थे उनमें से तीसरे ग्रुप में छह देश थे जिनमें ब्राजील, स्वीट्जरलैंड और तुर्की शामिल थे जिनका कुछ विरोध के बावजूद समर्थन था। ये देश गैर एनपीटी देशों को शामिल किए जाने पर सहमत थे। चौथे ग्रुप में तीन देश थे- ऑस्ट्रिया, न्यूजीलैंड और आयरलैंड जिसने कडा रूख अपना रखा था। यह सिर्फ भारत की दावेदारी का ही विरोध नहीं कर रहे थे बल्कि उसकी क्रायटेरिया निर्धारित करना चाह रहे थे जबकि एक मात्र चीन था जो भारत के साथ पाकिस्तान को भी एनएसजी में सदस्यता पर अडिग था।


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