सौम्या- हीना जैसी खिलाड़ियों के फैसले से हिजाब विरोधी मुहिम चला रही महिलाओं को मिलेगा बल
सौम्या स्वामीनाथन व हीना सिद्धू जैसी खिलाड़ियों के फैसले से ईरान में हिजाब विरोधी मुहिम चला रही महिलाओं को भी बल मिलेगा
[क्षमा शर्मा]। हाल ही में भारत की महिला ग्रैंडमास्टर सौम्या स्वामीनाथन ने हिजाब की अनिवार्यता का विरोध करते हुए ईरान में होने जा रही शतरंज चैंपियनशिप से अपना नाम वापस लेने का फैसला किया। यह प्रतियोगिता ईरान के हमादान शहर में 26 जुलाई से 4 अगस्त तक आयोजित होगी। इस संदर्भ में सौम्या ने अपने फेसबुक पेज पर लिखा-मैंने कहा कि मुझे एशियन नेशंस कप चैंपियनशिप 2018 से अलग रखा जाए। मैं नहीं चाहती कि कोई मुझे सिर पर स्कार्फ बांधने या बुर्का पहनने को मजबूर करे।
ईरान का यह कानून मेरे मानवाधिकार के खिलाफ है। यह मेरी अभिव्यक्ति की आजादी, अंतरात्मा और धार्मिक आजादी के खिलाफ भी है। खेलों में कोई धार्मिक ड्रेस कोड नहीं होना चाहिए। इससे पहले वर्ष 2016 में भारत की मशहूर निशानेबाज हीना सिद्धू भी सिर को स्कार्फ से ढंकने के विरोध में ही ईरान की राजधानी तेहरान में खेलने से मना कर चुकी हैं।
महिलाओं पर लगे तरह-तरह के प्रतिबंध
गौरतलब है कि ईरान में वर्ष 1979 में हुई इस्लामिक क्रांति के बाद वहां सभी महिलाओं के लिए हिजाब पहनना कानूनन अनिवार्य कर दिया गया था। उनका चेहरा, हथेलियां और पंजे ही सार्वजनिक स्थानों पर खुले रह सकते हैं। इसके उल्लंघन पर सख्त सजा का प्रावधान है। मुझे याद आता है कि कई साल पहले दिल्ली के महिला प्रेस क्लब को ईरान सरकार की तरफ से आमंत्रण मिला था। प्रेस क्लब की सदस्य होने के नाते मुझे भी इसकी जानकारी दी गई। लेकिन जब मैंने ईरान सरकार की गाइडलाइंस देखीं तो मैंने तुरंत वहां जाने का विचार त्याग दिया। एक तरफ अपने देश में पर्दा प्रथा का विरोध करें और किसी देश में मात्र घूमने के लिए उसे ही अपना लें, यह मुझे गवारा नहीं था। हालांकि मेरा वर्षों से ईरान घूमने का मन था, लेकिन वहां महिलाओं पर लगे तरह-तरह के प्रतिबंधों ने मेरी वहां जाने की इच्छा ही खत्म कर दी।
हिजाब के खिलाफ आंदोलन
ईरान में शाह रजा पहलवी के दौर में एक वक्त ऐसा भी था, जब औरतों पर कोई ड्रेस कोड लागू नहीं था। यहां तक कि शाह की बेगम भी स्कर्ट पहनती थीं। लेकिन इस्लामिक क्रांति के नाम पर कुछ ऐसा हुआ कि महिलाओं को न जाने कितनी सदी पीछे धकेल दिया गया। पता नहीं क्यों जब भी मजहबी कट्टरपंथी लोग सत्ता में आते हैं, वे सबसे पहले अपने कोड़े से औरतों को ही पीटते हैं? औरतों की आजादी से उन्हें इतना खतरा महसूस होता है कि वे हर तरह से उन्हें दबाना चाहते हैं। ईरान में महिलाएं हिजाब के खिलाफ आंदोलन भी चला रही हैं। कुछ माह पहले ही वीदा मोवाहेदी नामक 31 वर्षीय महिला ने तेहरान की एक प्रमुख सड़क (जिसे इंकलाबी सड़क कहा जाता है) पर अपना सफेद हिजाब उतारकर पेड़ पर लटका दिया था।
वीदा को एक महीने जेल में रहने के बाद जमानत
वीदा का यह फोटो वायरल हो गया और देखते-देखते हिजाब के खिलाफ ईरान के बहुत से शहरों में आंदोलन शुरू हो गया था। लड़कियां और महिलाएं धड़ाधड़ हिजाब विरोध के चित्र पोस्ट करने लगीं। विरोध प्रदर्शन के बाद उनतीस औरतों को गिरफ्तार किया गया था। वीदा को एक महीने जेल में रहने के बाद जमानत मिली थी। एक दूसरी महिला नरगिस होसेनी को भी गिरफ्तार किया गया था। उस पर सिनफुल एक्ट का आरोप लगाया गया था। यदि आरोप साबित हो गया तो नरगिस होसेनी को दस साल कैद की सजा हो सकती है। पिछले दिनों ईरान में सरकार की तरफ से एक सर्वेक्षण कराया गया था, जिसमें 48.9 प्रतिशत लोगों ने यह राय दी थी कि हिजाब पहनना अनिवार्य नहीं, अपनी इच्छा का मामला होना चाहिए।
ईरान में लोग बढ़ती महंगाई और बेरोजगारी से हैं परेशान
ईरान में महिला अधिकारों के लिए काम करने वाले अपने ऊपर धार्मिक कानून थोपने के खिलाफ हैं। अरसे से इस पर बहस चल रही है। वहां युवा लड़के-लड़कियां इस तरह की बंदिशें पसंद नहीं करते और इनके खिलाफ आवाज उठा रहे हैं। इसीलिए बहुत से पुरुषों का समर्थन भी महिलाओं को मिल रहा है। कहा जा रहा है कि इन्हीं लोगों के पास तानाशाही से मुक्ति की चाभी है। दरअसल ईरान में लोग बढ़ती महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार से बुरी तरह परेशान हैं। ऊपर से इस तरह की धार्मिक बेड़ियां भी आज की तरक्की पसंद दुनिया की औरतों को नागवार गुजरती हैं। फिर अपने देश के इस कानून को, जो महिलाओं को दोयम दर्जे का नागरिक सिद्ध करता है, बाहर से आने वाली लड़कियों/महिलाओंपर लागू करना कहां तक जायज है? आपको जो मानना है, खूब मानिए। लेकिन उसे दूसरों पर क्यों थोपते हैं? और वह भी तब, जब खुद ईरान की बहुत-सी महिलाएं इसका विरोध कर रही हैं।
सौम्या और हीना के निर्णय से हिजाब विरोधी मुहिम को मिलेगा नैतिक बल
सौम्या स्वामीनाथन ने कहा कि हालांकि उन्हें इस प्रतियोगिता में न खेल पाने का अफसोस है, लेकिन कुछ चीजें ऐसी होती हैं, जिनके साथ समझौता नहीं किया जा सकता। उनके इस फैसले पर उन्हें खूब समर्थन भी मिल रहा है। सौम्या व हीना जैसी खिलाड़ियों के निर्णय से ईरान में हिजाब विरोधी मुहिम चलाने वाली महिलाओं को भी निश्चित ही नैतिक बल मिलेगा। ईरान में 1979 के बाद कट्टरपंथ किस हद तक गहराया, इसकी मिसाल भारत में 1982 में हुए एशियाई खेलों में देखने को मिली थी। तब इन खेलों का भव्य उद्घाटन समारोह दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम में हुआ था। उन खेलों में जिन देशों की टीमों ने भाग लिया था, उनमें से हरेक टीम के आगे साड़ी पहने एक भारतीय महिला झंडा लेकर चल रही थी।
क्या महिलाओं को बराबरी का कोई अधिकार नहीं
ईरानी टीम ने इसका विरोध किया और कहा कि वे किसी औरत के पीछे नहीं चलेंगे। और हमने अपनी आतिथ्य परंपरा का मान रखते हुए उनकी बात स्वीकार कर ली थी। लेकिन यदि कोई विदेशी महिला उनके देश में खेलने जाए तो उस पर ऐसे रूढ़िवादी नियम क्यों थोपे जाते हैं? दूसरे के देश में भी आप अपनी चलाएं और अपने देश में मेहमानों पर भी अपने रूढ़िवादी नियम-कायदे लादें, यह कहां तक उचित है? औरतों को मारकर, सताकर, आखिर किस धर्म की रक्षा हो सकती है? जब एक तरफ कहते हैं कि धर्म सबको बराबरी का अधिकार देता है तो क्या यह बराबरी मात्र पुरुषों के लिए है? क्या महिलाओं को बराबरी का कोई अधिकार नहीं? और फिर क्रांति की यह कैसी परिभाषा है जो औरतों को प्रगति के रास्ते दिखाने के बजाय उन्हें तरह-तरह की बंदिशों में रखना पसंद करती है? आज की नारी को ऐसी बंदिशें बर्दाश्त नहीं!
[साहित्यकार एवं स्तंभकार]