Chhattisgarh News: बस्तर दशहरा का रथ बनाने वाले कारीगर भुगतते हैं सामाजिक दंड, जानें क्यों है यह परंपरा
बस्तर दशहरा की परंपरा में भोज भी है और सजा भी। इस पर्व के दौरान देवी के छत्र को घुमाने के लिए रथ निर्माण का काम बेड़ा उमरगांव और झार उमरगांव निवासी संवरा जाति के लोग करते हैं। इन कारीगरों को गांव लौटते ही सजा मिलती है
हेमंत कश्यप, जगदलपुर। बस्तर दशहरा की परंपरा में भोज भी है और सजा भी। इस पर्व के दौरान देवी के छत्र को घुमाने के लिए रथ निर्माण का काम बेड़ा उमरगांव और झार उमरगांव निवासी संवरा जाति के लोग करते हैं। इन कारीगरों को गांव लौटते ही सजा मिलती है। आरोप होता है कि दूसरी जाति के लोगों का रथ बनाने में सहयोग क्यों लिया। कारीगर गांव पहुंचकर दंड सहर्ष स्वीकर करते हैं और पूरा गांव सामूहिक भोज का आनंद लेता है।
संवरा जाति के लोग होते हैं रथ निर्माण के मुख्य कारीगर
सदियों से जारी इस परंपरा में सामाजिक सहभागिता और सम्मान का भाव छिपा है। इसमें यह भी संदेश है कि देवी का रथ बनाने के कारण कारीगर को अहंकार न आ जाए। देवी के काम में दूसरे लोगों का सहयोग लेने वाले स्वयं को बेहतर न समझने लगें। संवरा जाति के कारीगरों को दूसरी जाति के लोगों के साथ काम करने के कारण सामाजिक दंड दिया जाता है। समाज में फिर से मिलने के लिए इन दोनों गांव के करीब 400 लोगों को सामूहिक भोज देना पड़ता है। रथ बनाने का जिम्मा रियासतकाल से संवरा जाति के कारीगरों के पास है। कालांतर में रथ बनाने के लिए संवरा लोग ककम आने लगे तो भतरा, मुरिया जाति के लोगों की भी मदद लेनी पड़ी।
दंड बगैर ग्राम में प्रवेश नहीं
भतरा आदिवासी समाज के अध्यक्ष रतनराम कश्यप बताते हैं कि दशहरा के बाद संवरा जाति के कारीगर जब गांव लौटते हैं, तब इन्हें बस्ती में प्रवेश नहीं दिया जाता। समाज में मिलने के लिए इन्हें दंड भोगना पड़ता है। रथ बनाने वाले दल के प्रमुख दलपति सिरहा (बड़े उमरगांव) और कंवल नाग (झार उमरगांव) हैं। अपना कार्य दूसरी जाति के साथ करने के आरोप में उन्हें सामाजिक रूप से बहिष्कृत किया जाता है। समाज में मिलने के लिए भोज देना पड़ता है। बस्तर दशहरा समिति भोज के लिए आर्थिक सहयोग के साथ बकरे का प्रबंध करती है।