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कोर्ट से बाहर स्वैच्छिक इकबालिया बयान पर भी हो सकती है सजा

कोर्ट से बाहर दिया इकबालिया बयान हालांकि एक कमजोर साक्ष्य होता है, लेकिन इसका इस्तेमाल किसी व्यक्ति को सजा देने के लिए किया जा सकता है बशर्ते अदालत संतुष्ट हो कि उक्त बयान स्वैच्छिक है।

By Arti YadavEdited By: Published: Mon, 08 Oct 2018 09:54 AM (IST)Updated: Mon, 08 Oct 2018 10:12 AM (IST)
कोर्ट से बाहर स्वैच्छिक इकबालिया बयान पर भी हो सकती है सजा
कोर्ट से बाहर स्वैच्छिक इकबालिया बयान पर भी हो सकती है सजा

नई दिल्ली, प्रेट्र। अपने एक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने अदालत से बाहर दिए इकबालिया बयान को लेकर एक अहम व्यवस्था दी है। उसका कहना है कि न्यायालय से बाहर दिया इकबालिया बयान हालांकि एक कमजोर साक्ष्य होता है, लेकिन इसका इस्तेमाल किसी व्यक्ति को सजा देने के लिए किया जा सकता है बशर्ते अदालत संतुष्ट हो कि उक्त बयान स्वैच्छिक है।

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जस्टिस आर भानुमति और न्यायमूर्ति इंदिरा बनर्जी की पीठ ने एक फैसले में उपरोक्त व्यवस्था दी। पीठ के अनुसार, कोर्ट से बाहर दिए इकबालिया बयान से जुड़े मामलों में अदालत को यह जरूर सुनिश्चित करना होगा कि उक्त बयान विश्वसनीय है और अभियोजन के अन्य साक्ष्य उसकी पुष्टि करते हैं। सर्वोच्च न्यायालय के मुताबिक, 'अगर कोर्ट संतुष्ट है कि न्यायालय से बाहर दिया गया इकबालिया बयान स्वैच्छिक है तो इसे सजा देने का आधार बनाया जा सकता है। हालांकि सभी मामलों में आरोपित के इस तरह के इकबालिया बयान की पुष्टि की कोई जरूरत नहीं है।'

सुप्रीम कोर्ट के अनुसार, यह स्थापित मान्यता है कि सजा स्वैच्छिक इकबालिया बयान पर आधारित हो, लेकिन कानूनन यह जरूरी है कि जहां तक संभव हो सके, इसकी पुष्टि दूसरे साक्ष्यों से करा लेनी चाहिए। शीर्ष अदालत ने हिमाचल प्रदेश में निचली अदालतों द्वारा भ्रष्टाचार के दोषी ठहराए गए एक पूर्व बैंककर्मी की सजा को बरकरार रखने वाले अपने फैसले में उपरोक्त टिप्पणी की।

निचली अदालत व हिमाचल प्रदेश हाई कोर्ट से भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम व भारतीय दंड संहिता (आइपीसी) की धाराओं के तहत सजा पाए बैंककर्मी ने राहत पाने के लिए शीर्ष कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। उसने शीर्ष अदालत में दायर याचिका में कहा था कि अपने दो वरिष्ठ अधिकारियों के समक्ष दिए उसके इकबालिया बयान के आधार पर उसे सजा दी गई है। उसके उक्त बयान को स्वैच्छिक नहीं कहा जा सकता है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उसकी दलीलें नहीं सुनी और हाई कोर्ट के आदेश को बरकरार रखा। हालांकि शीर्ष अदालत ने पूर्व बैंककर्मी की पांच साल कैद की सजा को घटाकर तीन वर्ष कर दिया।


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