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कथाकार काशीनाथ सिंह ने बड़े भाई नामवर सिंह के बारे में कही ऐसी बातें, आंखें हो जाएंगी नम

बड़े भइया प्रो. नामवर सिंह हिंदी साहित्य के एक असाधारण व्यक्तित्व रहे। उन्होंने आजीवन एक योगी का जीवन जिया, जिन्हें साहित्यिक योगी भी कह सकते हैं।

By Arun Kumar SinghEdited By: Published: Wed, 20 Feb 2019 09:29 PM (IST)Updated: Wed, 20 Feb 2019 09:29 PM (IST)
कथाकार काशीनाथ सिंह ने बड़े भाई नामवर सिंह के बारे में कही ऐसी बातें, आंखें हो जाएंगी नम
कथाकार काशीनाथ सिंह ने बड़े भाई नामवर सिंह के बारे में कही ऐसी बातें, आंखें हो जाएंगी नम

वाराणसी, जेएनएन। बड़े भइया प्रो. नामवर सिंह हिंदी साहित्य के एक असाधारण व्यक्तित्व रहे। उन्होंने आजीवन एक योगी का जीवन जिया, जिन्हें साहित्यिक योगी भी कह सकते हैं। पढ़ने -लिखने और किताबों के सिवा जीवन में उन्होंने कुछ नहीं जाना। नागफनी का जिक्र वे जब अपने जीवन के संदर्भ में करते तो इशारा उनके संघर्षों की तरफ ही होता।

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वास्तव में नागफनी में कांटे ज्यादा होते हैं और उनकी जिंदगी भी कांटों भरी ही रही। दो विश्वविद्यालयों से निकाले गए, एक जगह मुकदमे का भी सामना करना पड़ा। उनकी बातें भी कभी-कभी बहुतों के लिए नागफनी हुआ करतीं तो आलोचना में भी नागफनी के कांटे दिखाई पड़ते। इन सबके बाद भी भइया असल में छतनार वृक्ष रहे, एक विशाल वृक्ष। सबको छाया देने वाले और उसी तरह अडिग भी। उनके जाने से सिर से छतनार की छांव उठ गई।

बड़े भइया के जीवन के सबसे अच्छे दिन लोलार्क कुंड के थे जिसमें संघर्ष के साथ सुख भी था। दिन भले गरीबी के रहे लेकिन ये वही दिन थे जब मां-पिता जी थे। मां और मैं तो रहते ही थे साथ में। मंझले भइया भी सप्ताह या पखवारे भर में आते रहते थे। इस तरह सामूहिकता का भाव बराबर बना रहता।

यह कह सकते हैं कि भइया का मानसिक निर्माण बनारस में ही हुआ और अंत तक मुख्य रूप से बनारसी ही रहे। वे जब तक अपने शहर बनारस में आ सकते थे, आते रहे। यहां आने की इच्छा भी बराबर उनकी बनी रहती है लेकिन उम्र ढलने के साथ उनका आना क्रमश: कम होता गया। बाद में हम लोग खुद इस पक्ष में नहीं रहे कि वे दिल्ली से बाहर ज्यादा जाएं। मिलना होता तो मैं खुद ही चला जाता।

मुझे सदा से गर्व रहा कि मैं उनका छोटा भाई हूं। उन्होंने मुझे गोद में खिलाया, पढ़ाया-लिखाया। हर सुख-दुख में मैंने उन्हें साथ पाया। डेढ़ दशक तक बनारस में उनकी छाया की तरह रहा। लेखक के रूप में जहां कहीं मुझमें भटकाव आया, बराबर उनसे बातें की। कुछ अच्छा लिख सका, तो उसके पीछे कहीं-न-कहीं उनके दिए सूत्र रहे। बड़े भइया जब दिल्ली चले गए तो मैं साल में दो तीन-बार, सप्ताह भर के लिए जाता रहा और सेवा वाला क्रम बराबर जारी रखा। यही वक्त होता था जब भइया खाली होते और उनसे समकालीन भारतीय साहित्य, हिंदी साहित्य, विश्व साहित्य आदि के बारे में बातें होती थीं।

कथा- लेखन का मेरा पूरा शिक्षण गुरु कुल शैली में हुआ, मैंने गुरु सेवा करते बहुत कुछ सीखा। भइया को सदा मेरी चिंता रहती। इसे उन्होंने 'जीवन क्या जिया' में लिखा भी। वास्तव में यह भाई-भाई का लगाव ही रहा लेकिन हम दोनों भाइयों की चिंता यह रही है कि उन्हें घर-परिवार की चिंता से मुक्त रखा जाए। कारण यह कि भइया जब गांव में मिडिल में पढ़ते थे, तभी वे इलाके में कवि रूप में प्रसिद्धि पा चुके थे। वे सम्मेलनों में काव्य-पाठ करते और लोग उन्हें तल्लीनता से सुनते।

बनारस में भी वे कभी गीतों के राजकुमार ही थे। इससे हमने तय किया कि हम लोग कुछ बनें या न बनें लेकिन हम में से एक भाई कुछ बन रहा है तो उसके लिए जो कुछ हो सकता है, करेंगे। यह हम तीनों भाइयों का लगाव था जो जैसा था, वैसा ही रहा। 


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