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न्यूनतम समर्थन मूल्य कानूनी रूप से बने बाध्यकारी, तभी बनेगी बात और होगा फायदा

यदि एपीएमसी मंडी नहीं होगी तो न्यूनतम समर्थन मूल्य भी नहीं होगा जिसकी वजह से निजी खिलाड़ी बिहार के किसानों को अधिक कीमत दे सकेंगे।

By Kamal VermaEdited By: Published: Mon, 27 Jul 2020 08:31 AM (IST)Updated: Mon, 27 Jul 2020 08:31 AM (IST)
न्यूनतम समर्थन मूल्य कानूनी रूप से बने बाध्यकारी, तभी बनेगी बात और होगा फायदा

देविंदर शर्मा। करीब चौदह साल पहले बिहार ने कृषि उत्पाद विपणन समिति (एपीएमसी) अधिनियम को हटाकर भविष्य के कृषि बाजार सुधारों की शुरुआत की थी, हम आज भी उस चमत्कार की प्रतीक्षा में हैं। कई अर्थशास्त्रियों ने एपीएमसी मंडियों के रास्ते में नहीं आने से बहुत सारे निजी निवेश से आधुनिक बाजार यार्ड और खरीद केंद्रों को स्थापित करने की उम्मीद जताई थी। ऐसे में जब एपीएमसी मंडी नहीं होगी तो न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) भी नहीं होगा। इसका अर्थ है कि निजी खिलाड़ी बिहार के किसानों को अधिक कीमत दे सकेंगे। उस वक्त अनुमान लगाया गया था कि बाजारों के निर्बाध संचालन से बिहार देश के समृद्ध राज्यों में शामिल होगा।

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अब कोई भी बिहार के पिछड़ने की बात नहीं करता है। शायद ही ऐसा कोई साल बीता हो जब लोभी व्यापारियों ने पंजाब और हरियाणा की मंडियों में बेचने के लिए गेहूं और धान के ट्रक न भेजे हों। स्थानीय रूप से निजी कारोबारी बहुत कम कीमत देते थे। इस वर्ष गेहूं के खरीद मूल्य प्रति क्विंटल 1,925 रुपए की तुलना में बिहार के किसानों को 1,500 से 1,600 रुपए से अधिक नहीं मिल रहा था। यही कारण है बिहार के एक ग्रामीण परिवार की औसत आय 7,175 रुपए प्रतिमाह है। वहीं पंजाब में ग्रामीण परिवार की औसत आय 23,133 रुपए है।

अब हम अमीर विकसित देशों पर नजर डालते हैं। कृषि बाजार सुधारों के रूप में जो पिछले छह दशकों से अमेरिका में अस्तित्व में था, वह सब खत्म हो रहा है। अमेरिका में एक देश, एक बाजार का नियम रहा है। किसान देश के अंदर और बाहर कहीं भी अपनी उपज बेच सकते हैं। वहां पर अनुबंध कृषि है। बड़े खुदरा क्षेत्र के लिए स्टॉक की कोई सीमा नहीं है और कमोडिटी ट्रेडिंग है। इन सारे बाजार सुधारों के मौजूद होने के बाद भी अमेरिका के कृषि विभाग के मुख्य अर्थशास्त्री के रिकॉर्ड में यह बात है कि 1960 के बाद से देश में कृषि आय में गिरावट दर्ज की गई है। 

अधिकांश किसान दिवालिया हैं। उनके दिवालिया होने की रकम 425 अरब डॉलर को छू रही है। वहीं ग्रामीण इलाकों में शहरों के मुकाबले में आत्महत्या की दर 45 फीसद अधिक है। अमेरिका के किसान भी गंभीर र्आिथक संकट से गुजर रहे हैं। यदि बाजार इतना कुशल होता तो मुझे समझ नहीं आ रहा है कि क्यों अमीर विकसित देशों में खेती संकट में हैं और इसे क्यों लगातार कृषि सब्सिडी की जरूरत होती है। ऑर्गेनाइजेशन फार इकोनॉमिक कॉपरेशन एंड डवलपमेंट (ओईसीडी) ने 2018 में बाजार पर निर्भर कृषि को गति देने के लिए 246 अरब डॉलर की सब्सिडी प्रदान की थी ।

सब्सिडी को वापस लेने के बाद अमीर देशों में कृषि ध्वस्त हो गई। अब वही बाजार सुधारों को भारत में आक्रामक रूप से आगे बढ़ाया जा रहा है। साथ ही किसानों को अधिक मूल्य प्रदान करने का वादा किया गया है। अगर माना जाए कि भारत में महज 6 फीसद किसानों को एमएसपी मिलता है, शेष 94 फीसद हर स्थिति में बाजार पर निर्भर हैं। यदि ये बाजार इतने कुशल हैं तो मुझे कोई कारण नजर आता कि क्यों इतनी बड़ी संख्या में किसान कर्ज के बोझ से दबकर आत्महत्या कर चुके हैं। यह देखते हुए कि 86 फीसद किसानों के पास 2 हेक्टेयर से भी कम जमीन है, मुझे आश्चर्य है कि उन्हें एक देश, एक बाजार की संभावना से कैसे और क्यों उत्साहित होना चाहिए ।

पंजाब, हरियाणा और राजस्थान में तीन अध्यादेशों के खिलाफ किसानों का प्रदर्शन उनकी आशंकाओं को दर्शाता है। यद्यपि एपीएमसी मंडी और एमएसपी को बरकरार रखा जाएगा। किसान जानते हैं कि व्यापारियों को एपीएमसी बाजार के बाहर से बिना किसी टैक्स के भुगतान की अनुमति देना इन मंडियों को बेमानी बना रहा है। वहीं एपीएमसी बाजार से खरीदारी करने वालों को कर (पंजाब में 6 फीसद) का भुगतान करना होगा। इसका एक अर्थ ये भी है कि एमएसपी धीरे-धीरे खत्म हो जाएगा और सरकार सिर्फ पीडीएस आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए खरीदारी करेगी।

कॉरपोरेट, अर्थशास्त्री और सरकार का दावा है कि किसानों को अधिक कीमत मिलेगी, इसलिए किसानों के गुस्से का सामना करने के लिए अकेला तरीका चौथे अध्यादेश को लाना है। इस अध्यादेश से किसानों को एमएसपी का कानूनी अधिकार मिल जाना चाहिए। इन सब के बाद यदि किसानों को अधिक आय की उम्मीद है तो एमएसपी को कानूनी जामा पहनाने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए। यह सुनिश्चित करना होगा कि एमएसपी से नीचे कोई व्यापार नहीं होगा। कानूनी तौर पर किसानों को हर जगह सुनिश्चित कीमत मिलने का का वादा किसानों के लिए वास्तविक आजादी होगी। 

(लेखक कृषि एवं खाद्य नीतियों के विश्लेषक हैं) 


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