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विशेष : स्‍मृतियों में आकर मिलते रहेंगे नामवर सिंह के प्रेरणादायी विचार

इन दिनों हिंदी में इतने युवा और प्रतिभाशाली साहित्‍यकार हैं तो मुझ बुड्ढे का इंटरव्‍यू क्‍यों करना चाहती हो। इसके जवाब में जब मैंने कहा कि आपकी बताई बातें मेरे लिए अमूल्‍य निधि होंगी।

By Kamal VermaEdited By: Published: Thu, 21 Feb 2019 05:50 PM (IST)Updated: Thu, 21 Feb 2019 05:50 PM (IST)
विशेष : स्‍मृतियों में आकर मिलते रहेंगे नामवर सिंह के प्रेरणादायी विचार
विशेष : स्‍मृतियों में आकर मिलते रहेंगे नामवर सिंह के प्रेरणादायी विचार

स्मिता। 65 साल से भी अधिक लेखन का विराट अनुभव रखने वाले डॉ नामवर सिंह को सुनने का अवसर तो हिंदी साहित्‍य के कई अलग-अलग प्रोग्राम में मिला था, अलग-अलग विषयों पर टेलीफोन पर उनके विचार भी अक्‍सर लिया करती थी, लेकिन उनका इंटरव्यू करने का अवसर जब अपने किसी सीनियर के सहयोग से मिला तो लगा ही नहीं कि हिंदी के आधार स्‍तंभ से मिल रही हूं। मैं उनसे बातचीत करने के लिए उनके घर पर गई थी। बहुत गर्मी न होने के बावजूद मैं पसीने से तर ब तर हो रही थी।

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मौसम से अधिक मुझे इस बात का भय लग रहा था कि कहीं अपना इंटरव्यू देने से पहले वे मुझसे ही हिंदी साहित्‍य के बारे में सवाल-जवाब न करने लगें। लेकिन जैसे ही उन्‍होंने दरवाजा खोलकर बड़ी आत्‍मीयता से मुझे अंदर बुलाया, तो मन में सहजता के भाव खुद ब खुद आने लगे। बैठते ही उन्‍होंने कहा कि इन दिनों हिंदी में इतने युवा और प्रतिभाशाली साहित्‍यकार हैं, तो मुझ बुड्ढे का इंटरव्‍यू क्‍यों करना चाहती हो। इसके जवाब में जब मैंने कहा कि आपकी बताई बातें मेरे लिए अमूल्‍य निधि होंगी।

इस पर उन्‍होंने कहा कि तब तो हम दो-ढाई घंटे से अधिक बतियाएंगे। उम्र के कारण उनकी कमर भले ही थोड़ी झुक गई थी, मानो विशाल अनुभव की गठरी हो पीठ पर, लेकिन आंखों में चमक बरकरार थी। नामवर सिंह पुरानी पीढ़ी और नई पीढ़ी के बीच की कड़ी थे। उस समय उनके घर के अतिथि कक्ष में न सिर्फ पुरानी पीढ़ी के लेखकों की कृतियां सजी हुई थीं, बल्कि युवा लेखकों की अनगिनत किताबें भी उन्‍होंने संभाल कर रखी हुई थीं। बुक सेल्‍फ पर युवाओं की पुस्‍तकें सजी देखकर मैंने जब पहले ही सवाल में उनसे पूछा कि लगता है युवाओं का लेखन आपको पसंद है, जबकि अन्‍य वरिष्‍ठ साहित्‍कार तो युवाओं के लेखन की केवल कमियां ही गिनाते हैं। इस पर उन्‍होंने तपाक से कहा था कि यह देखा गया है कि जो बीत चुका है वही अच्छा लगता है।

वर्तमान अच्छा नहीं लगता है। आज के युवा आत्मचेतस हैं। वे अपनी खूबियों के साथ-साथ कमजोरियों को भी जानते हैं। इन दिनों युवा अलग-अलग विषयों पर समसामयिक लिख रहे हैं। हां वरिष्‍ठ साहित्‍यकारों को बिना मांगे सलाह नहीं देनी चाहिए। सीख ताको दीजिए जाको सीख सुहाय। सीख न दीजे बांदरे बया का घर भी जाए। युवा लेखक खुद समझदार हैं। वे अपना रास्ता खुद तय करते हैं। वे अच्छी तरह जानते हैं कि उन्हें क्या लिखना चाहिए और क्या नहीं। नामवर सिंह भले ही पेशे से अध्‍यापक थे, लेकिन वे कभी किसी को बिना मतलब की सलाह नहीं दिया करते थे। वे आलोचक थे, लेकिन साहित्‍यक कृतियों की व्‍यर्थ की आलोचना नहीं करते थे। जब एक सवाल मैंने उनसे यह पूछा कि कुछ वरिष्ठ लेखक इन दिनों स्तरहीन आलोचना लिखे जाने का आरोप लगाते हैं, के जवाब में पहले तो वे मुस्‍कराए और फिर कहा कि आमतौर पर मेरी उम्र के लेखक जो अस्सी पार कर चुके हैं, उन्हें अपना समय इतना महत्वपूर्ण लगता है कि सभी समकालीन लेखकों को खारिज करते रहते हैं।

मैं ऐसी दृष्टि नहीं रखता हूं। नए कवि, कहानीकार, उपन्यासकार बहुत बढिय़ा लिख रहे हैं। किसी एक का नाम गिनाना मुश्किल है। आलोचना की कई सारी पत्रिकाएं निकल रही हैं। मुझे यह नहीं लगता है कि पहले वाले दौर के लेखकों से वे किसी मामले में भी कमतर हैं। प्रबुद्ध और समझदार लेखन हो रहा है। दलित लेखन खूब हो रहा है। स्त्री कथाकार इन दिनों बहुत बढिय़ा लिख रही हैं। इसके आगे भी उन्‍होंने साहित्‍य संबंधी कई प्रश्‍नों के सार्थक जवाब दिए और जब हमारा साक्षात्‍कार समाप्‍त हुआ, तो बड़े प्रेम भाव के साथ दरवाजे तक छोड़ने आए और फिर घर आकर मिलने को भी कहा। भले ही मैं दोबारा उनके घर पर न जा सकी, लेकिन युवाओं के लेखन को लेकर कहे गए उनके प्रेरणादायी विचार हमेशा स्‍मृतियों में आकर मिलते रहेंगे। 

उनसे हुई बातचीत के प्रमुख अंश...

नामवर सिंह होने का मतलब क्या है?

पेशे से मैं अध्यापक रहा हूं। पहले काशी विश्वविद्यालय फिर देश के दूसरे विश्वविद्यालयों और अंत में जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय। इन विश्वविद्यालयों में कविताएं, कहानी और उपन्यास भी पढ़ाता रहा। काशी हिंदू विश्वविद्यालय में रूखा माने जाने वाले विषय भाषा विज्ञान पर मैंने काम किया। पुरानी भाषाएं, जैसे- अपभ्रंश, जिसे जानने वाले कम लोग मिलते हैं, पर काम किया। जेएनयू में जब नए ढंग के पाठ्यक्रम की शुरुआत हुई, तो साहित्य सिद्धांत (भारतीय हो या पाश्चात्य) और हिंदी आलोचना की परंपरा पढ़ाने लगा। लगभग 50 साल से भी अधिक समय से 'आलोचना पत्रिका का संपादन कर रहा हूं। मैंने मुख्य रूप से आलोचना पर ही लिखा है। इसके साथ-साथ समकालीन साहित्य से भी मेरा लगाव-जुड़ाव रहा। उसकी अभिव्यक्ति के रूप में दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाले कार्यक्रम 'आज सवेरे में नई प्रकाशित पुस्तकों (गद्य-पद्य) की चर्चा करता हूं। ये सभी मेरी रुचि के काम हैं। वाद-विवाद और संवाद करता रहा हूं। साथ ही, हम जैसे बुजुर्ग लेखकों को प्राचीन हिंदी साहित्य की परंपरा से युवाओं को अवगत कराते रहना चाहिए। आधुनिक और समकालीन साहित्य से उनका जुड़ाव बना रहे, इसके लिए पुराने साहित्य का नए सिरे से ज्ञान कराते रहना चाहिए। हिंदी साहित्य केवल हिंदी तक ही सीमित न रहे, बल्कि अन्य भारतीय भाषाओं, जैसे-उडिय़ा, बांग्ला, मराठी, गुजराती, मलयाली, तमिल, उर्दू, भोजपुरी आदि के महत्वपूर्ण लेखन के प्रति भी रुचि होनी चाहिए। मैं हमेशा ऐसा ही करने की कोशिश करता रहता हूं।

क्या अंग्रेजी की अपेक्षा हिंदी पाठकों की संख्या कम है?

अंग्रेजी भाषा में लिखने वालों के लिए पूरे भारत और विदेश के भी पाठक हैं। हिंदी की अपेक्षा उनका बाजार बहुत बड़ा है, लेकिन पढऩे वालों की संख्या कम है। उसकी तुलना में हिंदी का पाठक समुदाय बहुत बड़ा है। हिंदी में अनुवाद का कार्य बहुत हुआ है। अलग-अलग भारतीय भाषाओं में लिखे गए साहित्य का हिंदी में अनुवाद खूब हुआ है। हिंदी के लेखक या पाठक के ज्ञान का क्षेत्र विस्तृत है। अगर आप विश्व पुस्तक मेला देखें, तो वहां बड़ी संख्या में युवा हिंदी लेखक और पाठक जुटते हैं।

अंग्रेजी के लेखक अमीर हैं, जबकि हिंदी के लेखक गरीब। ऐसा क्यों?

हिंदी के लेखकों में अच्छी-खासी संख्या नौकरीपेशा लोगों की हैं। वे या तो अध्यापन से जुड़े हैं या फिर किसी दूसरी संस्था से। प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े लोग भी लिख रहे हैं। दिल्ली के अलावा, मध्य प्रदेश, बिहार, राजस्थान में भी अध्यापन करने वाले लोग कवि, कहानीकार और आलोचक हैं। हिंदी किताबों के खरीदार यानी पाठक समुदाय भी बड़ी संख्या में हैं। अध्यापकों के साथ-साथ विद्यार्थी भी खूब हिंदी किताबें पढ़ते हैं, क्योंकि उन्हें विश्वविद्यालयों की ओर से किताबें खरीदने के लिए अनुदान मिलते हैं। जब किताबें बिक रही हैं, तो लेखक कैसे गरीब रह सकते हैं?

हिंदी की तुलना में भारतीय अंग्रेजी साहित्य की क्या स्थिति है?

भारतीय अंग्रेजी में साहित्य लिखने वालों की संख्या कम है। राजनीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र, दर्शन के लिए लिखने वाले लोग बहुत अधिक हैं। अंग्रेजी विभाग में पढ़ाने वाले वाले लोगों की संख्या कम है खासकर हिंदी भाषी क्षेत्रों में। दूसरी भाषा मराठी, गुजराती, बांग्ला भाषा जानने वाले लोग जो अंग्रेजी पढ़ाते हैं, उनकी भी संख्या कम है। अंग्रेजी में पत्रिकाएं भी कम प्रकाशित होती हैं। ऐसे लोग जिनकी मातृभाषा हिंदी है, वे न सिर्फ हिंदी में लिखते हैं, बल्कि अंग्रेजी में उन्होंने पीएचडी किया है और अध्यापन कर रहे हैं।

आप युवा लेखकों को क्या संदेश देना चाहेंगे?

बिना मांगे सलाह नहीं देनी चाहिए। सीख ताको दीजिए जाको सीख सुहाय। सीख न दीजे बांदरे बया का घर भी जाए। युवा लेखक खुद समझदार हैं। वे अपना रास्ता खुद तय करते हैं। वे अच्छी तरह जानते हैं कि उन्हें क्या लिखना चाहिए और क्या नहीं। अब वह जमाना गया जब उस्ताद और गुरु होते थे। संगीत में यह अब भी कायम है। साहित्य में ऐसा नहीं होता है। आत्मचेतस हैं युवा। वे अपनी खूबियों के साथ-साथ कमजोरियों को भी जानते हैं। यह देखा गया है कि जो बीत चुका है अच्छा लगता है। वर्तमान अच्छा नहीं लगता है।

आपने कविता लिखने से शुरुआत की, फिर आलोचना की ओर किस तरह मुड़े?

एक उम्र होती है जब आदमी प्रेम करता है और कविता लिखता है। शुरुआत में मैंने भी ऐसा ही किया था। मैंने कुछ कविताएं लिखीं और वे प्रकाशित भी हुईं। कुछ अप्रकाशित भी रहीं, पर मुझे अध्यापन करना था, जिसमें कविता की कोई गुंजाइश नहीं है। फिर मैं आलोचना की ओर मुड़ गया। मैंने इसे ही अपना क्षेत्र बना लिया है।

क्या आप मानते हैं कि आपकी भाषा में जो कसावट है, वह आपके गुरुओं मार्कण्डेय सिंह और पंडित केशव प्रसाद मिश्र की देन है।

हाई स्कूल से इंटरमीडिएट तक मार्कण्डेय सिंह हमारे हिंदी के अध्यापक थे। भाषा के बारे में वे बहुत ज्ञान रखते थे। उनका दृष्टिकोण बेजोड़ था। जब काशी हिंदू विश्वविद्यालय में आया, तो एमए तक पंडित केशव प्रसाद मिश्र का मेरे ऊपर बहुत प्रभाव रहा। उनका जयशंकर प्रसाद के साथ बड़ा बढिय़ा संबंध था। केशव जी कामायनी काफी रोचकता से पढ़ाते थे। वे नपा- तुला और बिल्कुल सधा हुआ लिखते थे। कभी भी वे अपनी लेखनी से वाग्जाल नहीं फैलाते थे। उन्हीं की वजह से मैंने भाषा विज्ञान चुना। भाषा विज्ञान में मेरी रुचि होने की वजह से उन्होंने मुझे अपभ्रंश पढ़ाया था, जो बहुत कम लोगों को मालूम है। एमए के अंतिम वर्ष और शोध कार्यों के दौरान आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी का भी मेरे ऊपर प्रभाव पड़ा। उनके पास अखिल भारतीय हिंदी साहित्य की दृष्टिï थी। एक तो वे संस्कृत के पंडित थे। दूसरी ओर उन पर शांतिनिकेतन की परंपरा, गुरु रवींद्रनाथ ठाकुर और विश्व भारती का भी प्रभाव था।

अंग्रेजी का मिश्रण भाषा के लिए कितनी बड़ी चुनौती है?

खाने में खिचड़ी सुविधाजनक जरूर है, लेकिन हम उसे सम्मानजनक भोजन नहीं मानते हैं। हिंदी-अंग्रेजी मिलाकर जो हम हिंग्लिश बोलते हैं, दोनों भाषाओं के लिए खतरनाक है। इससे दोनों भाषाओं का अपमान होता है। यह प्रवृति उन्हीं लोगों में देखी जाती है, जिन्हें न सही तरीके से हिंदी आती है और न सही तरीके से अंग्रेजी आती है। जो जानते हैं, वे भाषा की मिलावट नहीं करते हैं। बोलने में तो यह चल सकता है, लेकिन ऐसा लिखना तो अन्याय है।

भाषा सरल होनी चाहिए या लच्छेदार?

सीधी रेखा खींचना बड़ा टेढ़ा काम है। उसी तरह सीधी और सरल भाषा लिखना मुश्किल काम है। गांधी जी जैसी सरल भाषा लिखते और बोलते थे, वह अनुकरणीय है। आमतौर पर बड़े-बड़े लेखक संस्कृतनिष्ठ हिंदी लिखते हैं, जो सही नहीं है। बोलचाल की भाषा वाली हिंदी लिखनी चाहिए, जिसमें बोली के शब्द भी आते हों। जैनेंद्र कुमार की हिंदी लाजवाब थी। स्वच्छ जल स्वास्थ्यकर होता है। भाषा भी गंदले पानी की तरह नहीं होनी चाहिए।

इन दिनों क्या लिख रहे हैं?

लेखन साधना है, जिसमें बहुत अधिक मानसिक श्रम लगता है। 90 के करीब पहुंच चुका हूं। जो लिखना था, लिख चुका। तीन-चार घंटे लगातार बोल सकता हूं, लेकिन लिख नहीं सकता। अब ताकत नहीं रही। मैंने तब तक लिखा है जब तक एकनिष्ठ होकर लिख सकता था। लेखन निर्बाध होना चाहिए। चलताऊ चीज मैं नहीं कर सकता।  


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