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बूंद-बूंद सहेजेंगे ताकि न हों दाने-दाने को मोहताज

बिन पानी सब सून... अब खुद जतन करने लगे हैं किसान, वर्षाजल को नहीं बह जाने देना चाहते व्यर्थ

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Thu, 22 Mar 2018 09:58 AM (IST)Updated: Thu, 22 Mar 2018 10:24 AM (IST)
बूंद-बूंद सहेजेंगे ताकि न हों दाने-दाने को मोहताज

नई दिल्ली (जेएनएन)। आज विश्व जल दिवस है। जल के महत्व को जानने का दिन। जल संरक्षण के संकल्प का दिन और समय रहते सचेत हो जाने का दिन। वर्षाजल को सहेजने के समेकित प्रयास विगत कुछ दशकों से सरकारी स्तर पर होते आए हैं। लेकिन अब जो प्रयास होते दिख रहे हैं, वे स्वत: किसानों द्वारा किए जा रहे हैं। यह एक अच्छा संकेत है। किसानों को यह बात अच्छे से समझ में आ चुकी है कि जल, जंगल और जमीन के संतुलित विकास के बिना उपयुक्त पारिस्थिति का होना असंभव है। प्रस्तुत है ऐसे ही कुछ ठोस प्रयासों को बयां करती बिलासपुर, छत्तीसगढ़ से सुरेश देवांगन और पौड़ी, उत्तराखंड से गुरुवेंद्र नेगी की यह रिपोर्ट।

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प्रयास में जुटे सैकड़ों किसान...

कोरबा, छत्तीसगढ़ के चार गांवों के करीब 1100 किसानों ने ठान लिया है कि अबसूखे की मार नहीं झेलना है। इनकी मानें तो 320 हेक्टेयर बंजर भूमि में इस बार मानसून में फसल लहलाएगी। गांव के एक रिटायर्ड शिक्षक नंदलाल की मदद से उन्होंने युक्ति भी खोज निकाली। गांवों के बीच में बड़ा पहाड़ मौजूद है। नाम है मड़वारानी पहाड़। गांव वालों का कहना है कि बारिश का लाखों क्यूसेक पानी इस पहाड़ से होता हुआ यूं ही बह जाता है। अब वे इसे सहेजने का जतन कर रहे हैं ताकि खेतों की प्यास बुझाई जा सके।

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पहाड़ से खेत तक पहुंचेगा पानी...

पहाड़ के चारों ओर पिरामिडीय कटाव बनाकर क्यारीनुमा नालियां बनाई जा रही हैं। पहाड़ से उतरने वाले वर्षाजल को इन नालियों से होते हुए खेतों तक पहुंचाया जाएगा। दो फुट चौड़े व तीन फुट गहरे नाले का निर्माण किया जा रहा है, जिसमें से छोटी-छोटी नालियों के जरिये पानी को खेतों तक पहुंचाया जाएगा। किसानों द्वारा अपने-अपने खेतों में भी क्यारियां बनाई जा रही हैं ताकि वर्षाजल को खेतों में भी सहेजा जा सके।

ऐसे हुई शुरुआत...

बिलासपुर संभाग के कोरबा जिले के ग्राम बीरतराई और आसपास के अन्य गांवों में पानी की कमी के चलते अधिकांश कृषि भूमि बंजर हो चुकी है। गांव के लोगों के लिए हालात मुश्किल होते जा रहे हैं, क्योंकि उनके लिए फसल उगाना कठिन होता जा रहा है। ऐसे में सभी पीड़ित किसान हालात बदलने की योजना को मूर्तरूप देने में जुटे हुए हैं। साझा प्रयास और श्रमदान कर रहे हैं। 540 मीटर के क्षेत्र में खोदाई का काम पूरा कर लिया गया है।

सेवानिवृत्त शिक्षक बीरतराई निवासी नंदलाल बिंझवार इस प्रोजेक्ट में तकनीकी निर्देशक की भूमिका में हैं। नंदलाल ने ही इस काम की शुरुआत की थी। 72 साल की उम्र में भी इनका हौसला देखते ही बनता है। उन्होंने ग्रामीणों के साथ मिलकर जल ग्रहण समिति का गठन किया। फिर ग्राम चिचोली व कचोरा के भी ग्रामीण इस मुहिम में शामिल हो गए।

मिला नाबार्ड का समर्थन...

ग्रामीणों के इस प्रयास की खबर राष्ट्रीय कृषि व ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) के अधिकारियों तक पहुंची और मौके पर पहुंचकर उन्होंने भी ग्रामीणों की इस कार्ययोजना का मुआयना किया, जिसके बाद इस अनोखे जल संग्रहण प्रोजेक्ट को आर्थिक सहयोग हेतु मंजूरी दे दी गई। अब 16 फीसद राशि किसानों को लगानी है, शेष 84 फीसद का निर्वहन नाबार्ड द्वारा किया जाएगा। दरअसल, श्रम लागत को आर्थिक अनुदान प्रदान किया गया है। खोदाई कार्य में लगे किसानों को इसकी मजदूरी शासकीय दर के अनुरूप प्रदान कर दी जाएगी। इससे मजदूरों का भी भला होगा।

गांव को जलग्राम बनाने की मुहिम

उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में पलायन की समस्या गंभीर रूप ले चुकी है। पानी, कृषि और मूलभूत संसाधनों की कमी के चलते अनके गांव खाली हो चुके हैं। ऐसे दौर में पौड़ी जिले के ग्राम कड़ाकोट निवासी 68 वर्षीय बुजुर्ग जगदीश जुयाल अपने ग्राम को जलग्राम बनाने की मुहिम में जुट गए हैं। थक हार कर वे भी दिल्ली को कूच कर चुके थे, लेकिन अब लौट आए हैं और गांव की बंजर भूमि को पानी से तर करने के लिए हरसंभव प्रयास कर रहे हैं। इन्होंने भी वर्षाजल संरक्षण की युक्ति को अपनाया है।

जुयाल के साथ मिलकर ग्रामीणजन पहाड़ों के तल पर छोटे-बड़े तालाब बनाने में जुटे हुए हैं। उनकी मंशा इन तालाबों में वर्षाजल का संचय करने की है। इस पानी का उपयोग वे बागवानी कर स्वरोजगार के नए अवसर स्थापित करने में करना चाहते हैं ताकि पलायन थम सके। छत्तीसगढ़ के कोरबा की तरह ही यहां भी युद्ध स्तर पर काम चल रहा है। ग्रामीणों को उम्मीद है कि यह योजना सफल रहेगी।

युक्ति काम की...

पहाड़ से होते हुए तेज बहाव में नीचे पहुंचने वाले बरसाती पानी से जहां भू कटाव हो रहा था वहीं उर्वरा भूमि का भी क्षरण हो रहा था। अब पहाड़ पर क्यारियों-नालियों का निर्माण किए जाने से ऐसा नहीं होगा जबकि खेतों को पानी भी मिल जाएगा। 


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