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संघ को कभी रास नहीं आया शिवसेना का वर्चस्व

भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने अपनी तरफ से ठाकरे निवास मातोश्री जाने की पहल न कर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ केएजेंडे को ही आगे बढ़ाने का काम किया है। क्योंकि संघ को महाराष्ट्र की राजनीति में शिवसेना का वर्चस्व कभी रास नहीं आया। शिवसेना-भाजपा गठबंधन केशिल्पकार कहे जानेवाले दिवंगत भाजपा नेता प्रम

By Edited By: Published: Fri, 05 Sep 2014 12:54 PM (IST)Updated: Sat, 06 Sep 2014 07:42 AM (IST)
संघ को कभी रास नहीं आया शिवसेना का वर्चस्व

मुंबई [ओमप्रकाश तिवारी]। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने अपनी तरफ से ठाकरे निवास मातोश्री जाने की पहल न कर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ केएजेंडे को ही आगे बढ़ाने का काम किया है। क्योंकि संघ को महाराष्ट्र की राजनीति में शिवसेना का वर्चस्व कभी रास नहीं आया।

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शिवसेना-भाजपा गठबंधन केशिल्पकार कहे जानेवाले दिवंगत भाजपा नेता प्रमोद महाजन शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे के दबाव के आगे न सिर्फ हमेशा झुकते आए, बल्किठाकरे की नाराजगी का डर दिखाकर अपनी पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को भी झुकाते रहे। 2006 में महाजन की हत्या केबाद इस नीति को उनकेबहनोई एवं महाराष्ट्र भाजपा केशीर्ष नेता गोपीनाथ मुंडे ने आगे बढ़ाया। जबकि संघ से करीबी रिश्ते रखनेवाले नितिन गडकरी शिवसेना केइस रवैये केविरोधी रहे।

संघ से जुड़ा भाजपा का एक तबका सदैव मानता रहा है कि शिवसेना-भाजपा गठबंधन शुरू होने केबाद से ही महाराष्ट्र भाजपा केकुछ नेता उसे जरूरत से ज्यादा महलव देते रहे हैं। यही कारण है कि राज्य की राजनीति में तो शिवसेना बड़े भाई की भूमिका निभा ही रही है, लोकसभा चुनाव में भी वह 2009 में भाजपा से दो सीट आगे निकल गई थी। हाल ही में हुए 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा पुन: बढ़त बनाने में कामयाब रही है।

बता दें कि 1990 तक चुनाव आयोग केरिकॉर्ड में शिवसेना प्रत्याशियों का उल्लेख निर्दलीय प्रत्याशी केरूप में होता था और भाजपा 1957 में ही एक राष्ट्रीय पार्टी केरूप में 25 सीटों पर राज्य विधानसभा चुनाव लड़कर चार सीटें जीतने में सफल रही थी। 1980 में मुंबई में अपनी स्थापना (जनसंघ का नया रूप) केतुरंत बाद हुए विधानसभा चुनावों में भी भाजपा 145 सीटों पर लड़कर 9.38 फीसद मतों केसाथ 14 सीटें जीतने में कामयाब रही थी।

भाजपा केएक धड़े का स्पष्ट मानना है कि 1985 में शुरू हुए रामजन्मभूमि आंदोलन केबाद गठबंधन के बावजूद शिवसेना को उसकी राजनीतिक हैसियत के अनुसार ही सीटें दी गई होतीं तो 1995 की गठबंधन सरकार में महाराष्ट्र में मुखयमंत्री भाजपा का बनताऔर उसे अपने संगठन विस्तार का अधिक मौका मिलता। अब अमित शाह केनेतृत्व में भाजपा अपनी पुरानी गलतियों को सुधारती दिखाई दे रही है। अब वह राज्य में नए सहयोगियों को जोड़कर न सिर्फ शिवसेना का दबाव कम करना चाहती है, बल्किउससे बराबरी की सीटें लेकर अपनी स्थिति भी मजबूत करना चाहती है।

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