संघ और हिंदूवादी संगठन मध्य प्रदेश के आदिवासी इलाकों में धूमधाम से मनाएंगे दुर्गोत्सव
दरअसल ये संगठन मानते हैं कि पूरे देश में ऐसा माहौल बनाया जा रहा है कि आदिवासी हिंदू नहीं हैं। कुछ संगठन अभियान चलाकर उन्हें भड़का रहे हैं कि आदिवासी 2021 की जनगणना में स्वयं को हिंदू न बताकर धर्म के कालम में अन्य भरें। संघ इससे चिंतित है।
धनंजय प्रताप सिंह, भोपाल। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्व हिंदू परिषद, वनवासी कल्याण परिषद और विद्या भारती सहित कई हिंदूवादी संगठन आदिवासी इलाकों में धूमधाम से दुर्गोत्सव का आयोजन करेंगे। आदिवासियों की पहचान को गैर हिंदू बताने के अभियान के खिलाफ इस साल इन इलाकों में ज्यादा से ज्यादा दुर्गा मूर्तियों की स्थापना की जाएगी। इन संगठनों ने स्थानीय जनप्रतिनिधियों से भी कहा है कि वे अपने क्षेत्रों के दूरस्थ अंचलों में दुर्गोत्सव के लिए युवाओं की समिति बनाएं, उन्हें आर्थिक सहयोग के साथ ही हरसंभव मदद करें। आदिवासी क्षेत्रों में दुर्गोत्सव के आयोजन का उद्देश्य आदिवासियों और उनकी नई पीढ़ी को हिंदुओं की मुख्यधारा से जोड़ना है।
आदिवासियों को भड़काने का आरोप
दरअसल, ये संगठन मानते हैं कि पूरे देश में ऐसा माहौल बनाया जा रहा है कि आदिवासी हिंदू नहीं हैं। कुछ संगठन अभियान चलाकर उन्हें भड़का रहे हैं कि आदिवासी 2021 की जनगणना में स्वयं को हिंदू न बताकर धर्म के कालम में 'अन्य' भरें। संघ इससे चिंतित है। वजह यह है कि वर्ष 1991 की जनगणना में हिंदुओं की जनसंख्या 84 फीसद थी, जो 2011 में घटकर 69 फीसद बची है। माना जा रहा है कि भील, गोंड या अन्य वनवासियों द्वारा खुद को गैर हिंदू बताने के कारण यह कमी आई थी।
संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत की मौजूदगी में विश्व हिंदू परिषद की भोपाल में हुई केंद्रीय समिति की बैठक में भी ये मुद्दा उठा था। तभी निर्णय लिया गया था कि आदिवासियों की आशंकाओं को दूर करने के लिए अभियान चलाया जाएगा। आदिवासियों को समझाएंगे वे हिंदू हैं संघ व उससे जुड़े संगठन अभियान में बता रहे हैं कि जिन्हें कबीरपंथी या वानरराज बाली का वंशज बताया जा रहा है, वे आदिवासियों को सनातन संस्कृति से दूर करना चाहते हैं।
हजारों साल पुरानी परंपरा से परिचित हो नई पीढ़ी
अब वनवासी इलाकों में ज्यादा से ज्यादा धार्मिक आयोजन कर समझाया जाएगा कि वे हिंदू ही हैं। इसके समर्थक में तर्क के रूप में बताया जा रहा है कि हर आदिवासी नाम के साथ राम-श्याम लिखता है, तिलक लगाता है, वह पारंपरिक हिंदू वेशभूषा धोती-कुर्ता पहनता है। रानी दुर्गावती से लेकर शंकर शाह तक रहे भगवती के उपासक मुगलों के खिलाफ लड़ने वाली रानी दुर्गावती से लेकर अंग्रेजों से लोहा लेने वाले शंकर शाह तक भगवती के उपासक रहे हैं। दोनों ही आदिवासी समाज से रहे हैं। वे भी दुर्गोत्सव धूमधाम से मनाया करते थे। दुर्गोत्सव मनाने की वजह भी यही है कि हजारों साल पुरानी परंपरा से नई पीढ़ी परिचित हो।
वनवासी कल्याण परिषद के प्रांत संगठन योगीराज परते ने बताया कि लोक कला-संस्कृति के लिए पूजा-पाठ और कितने बेहतर तरीके से हो सकता है, यह हमारा प्रयास होता है। जो भ्रांतियां फैलाई जा रही हैं, उनका जवाब समाज ही देगा। प्राचीन पूजा पद्धति, मान्यताओं या परंपराओं का मूल उपासक जनजातीय समाज ही है। प्रकृति का उपासक जनजातीय समाज है। समाज के सर्वागीण विकास के लिए हमारी संस्था काम कर रही है।