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भारत को अभी तक नहीं मिला मुक्त व्यापार समझौते का लाभ, ऐसे में बोझ बन जाता आरसेप, जानें इसकी वजहें

मौजूदा वक्‍त में आरसेप भारत के लिए बोझ बन जाता। अब आरसेप यानी रीजनल कांप्रिहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप पर समझौता हो चुका है और भारत के लिए विकल्प खुला रखा गया है। ऐसे में सवाल लाजमी है कि इससे पहले आरसेप को लेकर उत्साहित भारत के सामने कौन सी चिंताएं थीं...

By Krishna Bihari SinghEdited By: Published: Mon, 16 Nov 2020 06:29 PM (IST)Updated: Mon, 16 Nov 2020 06:29 PM (IST)
आरसेप यानी रीजनल कांप्रिहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप पर समझौता हो चुका है और भारत के लिए विकल्प खुला रखा गया है।

जयप्रकाश रंजन, नई दिल्ली। दुनिया के सबसे बड़े ट्रेड समझौते आरसेप यानी रीजनल कांप्रिहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप पर बीते रविवार को समझौता हो चुका है। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले वर्ष नवंबर में इसमें शामिल नहीं होने की घोषणा की थी और देश के इस रुख में पिछले एक वर्ष के दौरान कोई बदलाव नहीं हुआ है। पिछले हफ्ते आसियान (दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों के संगठन) सदस्यों के साथ मोदी ने फिर स्पष्ट किया कि मौजूदा स्वरूप में वह इसका सदस्य होने को इच्छुक नहीं है।

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अब भारत के लिए खुला है विकल्प

अब समझौता लागू हो चुका है और भारत के लिए विकल्प खुला रखा गया है। यानी अगर भारत इसमें शामिल होने को राजी हो तो उसकी चिंताओं के निराकरण पर विचार किया जा सकता है। सवाल यह है कि अक्टूबर, 2019 तक आरसेप को लेकर बेहद उत्साहित भारत के समक्ष चिंताएं क्या थीं। पिछले वर्ष भारत के इससे निकलने के बाद से विदेश और वाणिज्य मंत्रालयों की तरफ से लगातार कहा गया है कि वर्ष 2012 में आरसेप पर बात शुरू होने के बाद और वर्तमान हालात में बड़ा फर्क है। इसकी तीन-चार बड़ी वजहें हैं।

चीन से बढ़ता तनाव

पिछले कुछ वर्षों के दौरान भारत व चीन के कारोबारी रिश्तों में गर्माहट आनी शुरू हुई थी और दोनो देशों की सीमाओं पर कमोबेश हालात नियंत्रण में थे। वर्ष 2017-18 आते-आते चीन के साथ बढ़ते व्यापार घाटे, चीन के बॉर्डर रोड इनीशिएटिव (बीआरआइ) की योजना और फिर डोकलाम में उसके सैनिकों की घुसपैठ ने भारत को बहुत कुछ सोचने के लिए विवश किया। बीच-बीच में चीन ने अंतरराष्ट्रीय मंचों पर जिस तरह से भारत की बढ़ती हैसियत में रोड़े अटकाने शुरू किए, उससे भी उसकी मंशा साफ हुई।

...तो आसान हो जाता चीन का रास्‍ता

चीन के अड़ंगे की वजह से भारत अभी तक न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रूप (एनएसजी) का सदस्य नहीं बन पाया है। इसी बीच वर्ष 2018-19 के अंत से भारत की इकोनॉमी में कमजोरी के लक्षण दिखने लगे थे। ऐसे में जब पहले से ही भारतीय बाजार चीन के उत्पादों से अटे पड़े हैं... आरसेप चीनी उत्पादों के लिए बाजार का रास्ता और आसान कर देता।

अतीत में एफटीए से फायदा नहीं

आरसेप में शामिल आसियान के 10 देशों के साथ पहले से ही भारत का एफटीए है। दक्षिण कोरिया और जापान के साथ भी भारत का एफटीए है। इन तीनों एफटीए ने भारतीय इकोनॉमी को अपेक्षित फायदा नहीं पहुंचाया है। नीति आयोग के वर्ष 2017 के एक स्टडी पेपर के मुताबिक भारत ने जिन देशों के साथ एफटीए किया है, उनके साथ व्यापार घाटे की स्थिति और खराब ही हुई है।

केवल श्रीलंका को बढ़ा निर्यात

संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों के मुताबिक, एफटीए के बाद जापान को भारतीय निर्यात (वर्ष 2011 से वर्ष 2018) में 19 फीसद की औसत सालाना गिरावट हुई है। वहीं, जापान से आयात में 12 फीसद का सालाना इजाफा हुआ है। वर्ष 2010-18 के दौरान दक्षिण कोरिया के साथ भारत का व्यापार घाटा 4.2 अरब डॉलर से बढ़कर 10.5 अरब डॉलर का हो गया है। एफटीए के बाद सिर्फ श्रीलंका को निर्यात बढ़ा है।

बिना फायदे के भारतीय बाजार खोलना

एफटीए के बगैर ही भारत में ऑस्ट्रेलिया का निर्यात तेजी से बढ़ रहा है। चीन के साथ पिछले 18 वर्षों से कारोबारी घाटा बढ़ता गया है, लेकिन उसे पाटने की कोई ठोस नीति नहीं बन पाई है। ऐसे में आरसेप के मौजूदा स्वरूप में भारत के प्रवेश का सीधा सा मतलब यह था कि चीन और आसियान देशों को भारत में कारोबार के लिए और खुला माहौल देना। ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के कृषि व दुग्ध उत्पादों को भी भारत का विशाल बाजार मिल जाता। पहले से ही कई तरह की दिक्कतों से जूझते भारतीय कृषि व्यवस्था पर यह एक नया प्रहार होता।

क्या है आरसेप

आरपेस पर चर्चा आठ वर्ष पहले शुरू की गई थी। इसमें आसियान के 10 देशों (वियतनाम, मलेशिया, इंडोनेशिया, सिंगापुर, ब्रुनेई, फिलीपींस, थाइलैंड, म्यांमार, कंबोडिया, लाओस) समेत चीन, जापान, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड व दक्षिण कोरिया शामिल हैं। ग्लोबल जीडीपी और जनसंख्या, दोनों में इन देशों की सम्मिलित हिस्सेदारी करीब एक-तिहाई है। आरसेप समझौते से जुड़े मुद्दों पर कुल 31 दौर की चर्चाएं हुई और भारत इनमें से 29 वार्ताओं में शामिल रहा। 


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