आंकड़ों में घटती रही, आंखों में खटकती रही
चालू साल उपभोक्ताओं की जेबों पर भारी पड़ा है। उपभोक्ताओं के बदले मिजाज ने कई जिंसों के मूल्यों को अनपेक्षित ऊंचाई तक पहुंचा दिया है।
नई दिल्ली (सुरेंद्र प्रसाद सिंह)। पूरे साल के महंगाई के आंकड़ों पर नजर डाल जाइए, ऐसा शायद ही कोई महीना निकले जिसमें महंगाई बढ़ी हो। सरकार महंगाई को पानी पिलाने में कामयाब रही। लेकिन आंकड़ों की यह घटी महंगाई कभी भी रसोई में नहीं दिख पाई। सच्चाई यह है कि कुछ स्तरों पर समग्र प्रबंधन की कमी के कारण सरकार डाल-डाल तो महंगाई पात-पात डोलती रही।
चालू साल में महंगाई ने अपना रूप बदला है, जो उपभोक्ताओं की जेबों पर भारी पड़ा है। शहरी उपभोक्ताओं के बदले मिजाज ने कई जिंसों के मूल्यों को अनपेक्षित ऊंचाई तक पहुंचा दिया है। महंगाई के इस नये चरित्र ने सरकार को कई मोर्चे पर अलग तरीके से सोचने और कारगर रणनीति बनाने पर विवश किया है। आने वाले साल में वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) के लागू होने के बाद महंगाई तर्कसंगत हो सकती है।
सरकार ने महंगाई रोकने की छापामार रणनीति तो अपनाई, लेकिन महंगाई रूप बदलकर पात-पात की शक्ल में डोलती रही। इसका असल खामियाजा आम उपभोक्ताओं को उठाना पड़ा। साल की पहली तिमाही में थोक व खुदरा महंगाई की वृद्धि दरों में कमी दर्ज की गई, लेकिन वास्तविक महंगाई कम नहीं हुई। दालों के मूल्य उपभोक्ताओं को साल शुरु होने के साथ ही तंग करने लगे। इसी दौरान दालों के मूल्य में 38 फीसद से भी अधिक की वृद्धि दर्ज की गई।
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वर्ष 2016 के दौरान हर दूसरे महीने किसी एक प्रमुख जिंस के मूल्य में बेतहाशा वृद्धि होती रही। सरकार जब तक इसकी महंगाई की आग को बुझाने की कोशिश करती तो दूसरी जिंस में आग लगती रही। महंगाई ने खाद्य प्रबंधन और फैसलों को सालभर छकाया। सरकार की खाद्य प्रबंधन की खामियों के चलते इस पर कारगर कार्रवाई संभव नहीं हो सकी। दरअसल, सरकार के पास खाद्य प्रबंधन की समग्र नीति न होने से ही स्थितियां काबू में नहीं हो पाईं।
केंद्र की राजग सरकार ने सत्तारुढ़ होने के साथ ही खाद्यान्न की पैदावार के अनुमान लगाने की प्रणाली को दुरुस्त करने का वायदा किया था, जो अभी तक पूरा नहीं हो सका है। ऐसे में राज्यों से प्राप्त आंकड़ों पर ही भरोसा करने की सरकार की मजबूरी का फायदा महंगाई उठाती रही है।
सरकारी गोदामों में रखे अनाज को छोड़ दिया जाये तो निजी स्टॉक के बारे में पुख्ता जानकारी नहीं मिल पाती है। महंगाई को हवा देने वाले कालाबाजारी इसी कमजोरी का फायदा उठाते रहे हैं। हालांकि सरकार ने चालू साल में इसे दुरुस्त करने के लिए कुछ नये उपाय शुरु कर दिये हैं। निजी कंपनियों पर भरोसा न करते हुए सरकार ने दालों की आपूर्ति बढ़ाने के लिए खुद आयात करना शुरु कर दिया। महंगाई रोकने की दिशा में इसे सरकार की दूरदर्शी नीति नहीं कहा जा सकता। अरहर, उड़द और मूंग का आयात किया तो चना दाल ने मुश्किलें बढ़ा दी हैं।
अरहर, चीनी, गेहूं और चना जैसी जिंसों के साथ कई और छोटी-छोटी जिंसों की अलग-अलग समय पर हुई महंगाई से उपभोक्ता सालभर आजिज रहा तो सरकार इसे रोकने की कोशिश में तंग रही। महंगाई की नब्ज टटोलने वाले विशेषज्ञों की मानें तो सरकार की रणनीति टुकड़ों-टुकड़ों में थी, जो बहुत कारगर साबित नहीं हुई। हालांकि कुछ दूरगामी उपाय जरूर किये गये हैं, जिनमें आपूर्ति बढ़ाने के लिए अपने किसानों पर भरोसा किया गया है।
जिन कृषि उत्पादों की खेती कम होती थी, उसे प्रोत्साहित करने के लिए सरकार ने कई कदम उठाये हैं, जिनमें खेती के इनपुट की पर्याप्त उपलब्धता और दलहन व तिलहन फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में उल्लेखनीय वृद्धि करना शामिल है। लेकिन खाद्य उत्पादों की आपूर्ति श्रृंखला को मजबूत करने की दिशा में अभी बहुत कुछ करना बाकी है।
खेती से रसोई घर तक का सफर बहुत टेढ़े मेढ़े रास्ते से होकर गुजरता है। इसमें खेत व खलिहान से होकर आढ़ती, दलाल, थोक और खुदरा दुकानदारों से लोगों के रसोईघर तक पहुंचने में खाद्य उत्पादों के मूल्य स्वत बढ़ जाते हैं। इसके लिए सरकार ने ई-मंडी की शुरुआत कर दी है, जिसमें ज्यादा से ज्यादा मंडियों को शामिल करने की पहल राज्यों की ओर से हो रही है। उत्पादन बढ़ाकर आपूर्ति में सुधार करने की नीति से महंगाई पर काबू पाने की कोशिशें रंग ला सकती हैं।
महंगाई डायन ने सबसे ज्यादा मकान खरीदने वाले उपभोक्ताओं को डसा है। सरकार की मंशा के बावजूद बैंकों ने ग्राहकों तक को ब्याज दर में राहत नहीं पहुंचाई। चालू साल के पहले दस महीनों में तो नगदी के भरोसे करोड़ों मूल्य के मकान हाथों हाथ बिक रहे थे। लेकिन नोटबंदी ने रियल एस्टेट की फर्जी उछाल पर थोड़ी लगाम लगी दी। यह देखना रोचक होगा कि खाद्य प्रबंधन से लेकर नोटबंदी तक अगले साल महंगाई को किस हद तक काबू में रखने में समर्थ होगा।