Forward to Backward Caste: आरक्षण समाज के पिछड़े वर्गों को प्रतिनिधित्व देने का प्रयास
Forward to Backward Casteआरक्षण समाज के पिछड़े वर्गों को प्रतिनिधित्व देने का प्रयास है। यह एक या दो पीढ़ी में प्राप्त हो जाने वाला लक्ष्य नहीं है। अब इसके सकारात्मक परिणाम दिखने लगे हैं। किसी भी अवधारणा में फंसकर इसे गंवाया नहीं जाना चाहिए।
प्रो. विवेक कुमार। Forward to Backward Caste सदियों से सामाजिक संरचना में वंचित वर्गों को उनकी जनसंख्या के अनुपात में राजनीति, कर्मचारी तंत्र एवं शिक्षा में प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करते हुए राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया है आरक्षण। देश में आरक्षण व्यवस्था सीधे-सीधे जाति पर आधारित नहीं है बल्कि जाति व्यवस्था के आधार पर सामाजिक संरचना में शिक्षा, संसाधन, धर्म-संस्कृति और स्वैच्छिक व्यवसाय से बहिष्कृत किए गए वर्गों को प्रतिनिधित्व देने का कार्यक्रम है। कल्पना कीजिए कि यदि यह व्यवस्था न की गई होती, तो अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं अन्य पिछड़ा वर्ग के करोड़ों लोग राष्ट्र निर्माण में अपना प्रतिनिधित्व न सुनिश्चित कर पाए होते।
आरक्षण से और भी अधिक लाभ हुआ होता यदि इसको सच्ची राजनीतिक इच्छाशक्ति एवं संविधान की मूल भावना के तहत लागू होता। आरक्षण के संबंध में यह धारणा भी गलत है कि इससे पिछड़ी जातियों के अगड़े ही फायदा उठाते जा रहे हैं। सदियों के पिछड़ेपन को एक या दो पीढ़ी का आरक्षण दूर नहीं कर सकता है। आरक्षण केवल 10 वर्ष के लिए था, यह मिथ्या प्रचार भी अब बंद होना चाहिए। संविधान के अनुच्छेद 335 द्वारा अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति को नौकरियों में दिए गए आरक्षण की कोई भी समयसीमा निश्चित नहीं की गई है। इसी प्रकार शिक्षा व्यवस्था में भी आरक्षण की कोई समयसीमा संविधान में निश्चित नहीं है। हां, अनुच्छेद 330 एवं 332 द्वारा दिए गए राजनीतिक आरक्षण के संदर्भ में यह अवश्य कहा गया है कि संविधान लागू होने के 10 वर्ष के बाद इसकी प्रभावशीलता का आकलन किया जाएगा। प्रभावशीलता का आकलन किया जाना और आरक्षण की समयसीमा निश्चित किया जाना, दो अलग-अलग तथ्य हैं। इसकी समीक्षा अवश्य हो सकती है।
संविधान लागू होने के बाद 72 वर्षों में कभी भी ऐसा नहीं हुआ है कि अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लिए संविधान में अनुमन्य आरक्षण पूर्ण रूप से लागू हुआ हो। अब 72 वर्ष बाद यह सुझाव दिया जा रहा है कि क्रीमी लेयर लगाकर वंचितों को न्याय दिया जाएगा। पिछली सदी के आठवें दशक में दलितों के आरक्षण के लिए कहा जाता था ‘कैंडीडेट्स नाट अवेलेबल’। 1990 के आसपास जब अनुसूचित जाति एवं जनजाति ने शिक्षा ग्रहण कर प्रतियोगिता में भाग लेना आरंभ किया गया तो कहा गया ‘कैंडीडेट्स नाट फाउंड सूटेबल’। अब इन वर्गों ने अपनी
मेहनत और मशक्कत से तरक्की की है, तो उनको क्रीमी लेयर के जरिये पीछे करने का कथानक गढ़ा जा रहा है। इन समाजों का इनकी जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व सुनिश्चित होने से ही सही न्याय संभव है।
[समाजशास्त्री, जेएनयू]