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गरीबों के दर्द से रिश्ता जोड़कर बन गए फरिश्ता, अब यहीं से रिटायर होने की चाहत

डॉ. जेएल दरियो छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित बस्तर के अंदरूनी गांव नानगूर सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में 21 वर्षों से सेवा दे रहे हैं।

By Bhupendra SinghEdited By: Published: Sat, 18 Aug 2018 07:55 PM (IST)Updated: Sat, 18 Aug 2018 07:55 PM (IST)
गरीबों के दर्द से रिश्ता जोड़कर बन गए फरिश्ता, अब यहीं से रिटायर होने की चाहत

हेमंत कश्यप, जगदलपुर। डॉक्टरों को धरती का भगवान कहा जाता है, जो दर्द दूर करने के साथ नई जिंदगी भी देते हैं। आज जब मेडिकल की पढ़ाई शुरू करने के पहले से ही तमाम युवा शहरों में पदस्थापना का ख्वाब पालना शुरू कर देते हैं, ऐसे में डॉ. जेएल दरियो समाज के सामने सेवा भावना की मिसाल पेश कर रहे हैं। वह छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित बस्तर के अंदरूनी गांव नानगूर सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में 21 वर्षों से सेवा दे रहे हैं।

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जिला मुख्यालय पर अवसर मिलने के बावजूद उन्होंने सुदूर अंचल में पदस्थापना मांगी। वह झाड़-फूंक से दूर रहने के लिए ग्रामीणों के बीच जागरूकता अभियान चलाते हैं। रात में गांव के बच्चों को पढ़ाते भी हैं। गरीब व बेबस ग्रामीणों के बीच पूरी तरह रच-बस गए डॉक्टर दरियो अब यहीं से रिटायर भी होना चाहते हैं।

नक्सल प्रभावित कांकेर जिला अंतर्गत चारामा ब्लाक के दमकला ग्राम में मध्यम वर्गीय परिवार में जन्मे डॉ. दरियो की प्रारंभिक शिक्षा चारामा में ही हुई। जब वह कक्षा 10 में थे, उसी दौरान इलाज के अभाव में एक ग्रामीण को मरते देखा था। उसी दिन ठान लिया कि डॉक्टर बनना है और गरीबों की सेवा करनी है। कक्षा 12 के बाद पहले प्रयास में ही पीएमटी की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली। इस तरह डॉक्टर बनने का मार्ग प्रशस्त हो गया।

काफी आग्रह के बाद मिली गांव में पोस्टिंग

रायपुर से एमबीबीएस की पढ़ाई पूरी करने के बाद डॉक्टर दरियो की पहली पोस्टिंग 1993 में राजनांदगांव जिले के आदिवासी बाहुल क्षेत्र मानपुर सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र पर हुई। यहां उन्होंने गरीबों के दर्द को करीब से महसूस किया। 1997 में उनका तबादला नक्सल प्रभावित बस्तर क्षेत्र में हो गया। दूसरा कोई कर्मचारी या अधिकारी होता तो विचलित हो जाता, मगर यहां तो डॉ. दरियो को मानो मुंह मांगी मुराद मिल गई, लेकिन जब पता चला कि उन्हें जिला मुख्यालय भेजा जा रहा है तो वह निराश हो गए। उन्होंने हार नहीं मानी। उच्चाधिकारियों से मिलकर बस्तर के अंदरूनी गांवों में पोस्टिंग मांगी। उनके आग्रह पर अधिकारी हैरान थे क्योंकि नक्सल प्रभावित बस्तर के अंदरूनी इलाकों को आज भी जिंदगी की बेहद कठोर परीक्षा लेने वाला स्थान माना जाता है। विशेष आग्रह पर उन्हें नानगूर सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र पर पदस्थापना दे दी गई। तब से वह यहीं कार्यरत हैं और यहीं से रिटायर भी होना चाहते हैं।

आसान नहीं था ग्रामीणों को जागरूक करना

ग्रामीणों को जागरूक करने में डॉक्टर दरियो को काफी मशक्कत करनी पड़ी क्योंकि डॉक्टरी इलाज की बजाय ग्रामीण झाड़-फूंक पर ज्यादा भरोसा करते थे। उन्होंने गांव-गांव जाकर ग्रामीणों को समझाया। धैर्य के साथ इस काम में डटे रहे। अब आलम यह कि छोटी सी बीमारी होने पर भी ग्रामीण स्वास्थ्य केंद्र पहुंच जाते हैं। इतना ही नहीं, आधी रात में भी यदि किसी के गंभीर बीमार होने की जानकारी मिलती है तो वह तुरंत इलाज के लिए पहुंच जाते हैं।

पहला सीएचसी जो रेफर सेंटर नहीं

आज जबकि ज्यादातर सामुदायिक अथवा प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में पदस्थ डॉक्टर जोखिम उठाने के बजाय सामान्य केस भी जिला मुख्यालय रेफर कर देते हैं, ऐसे में नानगूर सीएचसी से सर्जरी व कुछ अन्य बड़े मामले छोड़ कोई भी केस रेफर नहीं किया जाता। सेरीब्रल मलेरिया से जुड़ा बड़ा सा बड़ा मामला डॉक्टर दरियो खुद संभालते हैं। सप्ताह में पांच से सात महिलाओं का सुरक्षित प्रसव यहां नियमित रूप से होता है। बर्न, गहरे जख्म आदि का भी सफल इलाज किया जाता है।


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