सर्वत्र है रामधारी सिंह दिनकर की रोशनी: जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनके भी अपराध...
दिनकर की खूबी यानी हर तरह के अंधेरे के खिलाफ होना। और उनकी चेतना या संवेदना का फलक इतना बड़ा कि कई परस्पर अलग बिंदु ...सिंधु बन कर दिखते हैं।
नई दिल्ली (नवनीत शर्मा)। एक कवि को बड़ा क्या बनाता है...उसके प्रतीक या बिंब? या अभिव्यक्ति का अंदाज, विषयों का चयन? भाषा की सरलता या क्लिष्टता या उस समय की परिस्थितियां? सम्भव है, इनमें से कुछ हो या सभी हों लेकिन.... कवि वही बड़ा होता है जिसके सरोकार एक ही खूंटे से बंधे हुए न हों...जिसकी भाषा जनभाषा न भी हो तो बन जाये और अंततः जिसके काव्यांशों को लोग उदाहरण की तरह बातचीत में प्रयोग करें। हिंदी काव्य जगत में यह बड़ाई राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर को हासिल है। एेसे कवि इतने व्यापक हो जाते हैं कि उन्हें भौगोलिक सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता।
दिनकर की खूबी यानी हर तरह के अंधेरे के खिलाफ होना। और उनकी चेतना या संवेदना का फलक इतना बड़ा कि कई परस्पर अलग बिंदु ...सिंधु बन कर दिखते हैं। जीवन में रहे होंगे कई विरोधाभास! लेकिन काव्य को लेकर कोई विरोधाभास नहीं। भीतर के कवि को राष्ट्र बना लिया या राष्ट्र को भीतर का कवि बना लिया। राजनीति को भी कविता के साथ निभाया। जब आवश्यक लगा, राजनीति से दूर होना मंजूर किया, कविता से नहीं। उन्हें तमाम बड़े पुरस्कार मिले लेकिन वे पुरस्कार लेखन की आत्मा पर बैठ नहीं गए। आज इस कद के लोग नहीं दिखते। बड़ी बात यह कि उनके गद्य में उतनी ही रवानी है जितनी पद्य में।
उन्होंने कृषक की पीड़ा लिखी, तो वे कृषक केवल बिहार या सिमरैया के नहीं थे, पंजाब के किसान के माथे की पसीने की बूंदों को भी इसी से स्पर्श मिला और विदर्भ के किसानों को भी। 'कुरुक्षेत्र' को जीवंत करने वाले, 'रश्मिरथी' की 'हुंकार' सुनाने वाले और भारतीय संस्कृति को अपने विशिष्ट अंदाज में देखने वाले दिनकर का बड़ा होना यहीं से साबित होता है कि संसद से लेकर साहित्यिक सभाओं तक और सामाजिक चर्चाओं से लेकर शोध संगोष्ठियों तक दिनकर के काव्यांश उद्धृत किए जाते हैं।
दिनकर की काव्यचेतना अपने समय के मुद्दों की आंख में आंख डालकर दृढ़ता से बात करने का सामर्थ्य रखती है। उन्हें केवल वीररस का कवि कह देना उनकी समग्र दृष्टि और व्यापक संवेदना संसार के साथ न्याय नहीं करने जैसा है। वह शांति के हिमायती थे लेकिन मुर्दा शांति के पैरोकार नहीं। उर्वशी में इनके भावों की कोमलता और श्रृंगार रस अलग मुकाम पर दिखता है तो चीन से धोखा और शिकस्त पाने बाद उन्होने परशुराम के जरिये यह कहलवाया कि युद्ध क्यों अनिवार्य है। उन्हें भूखे बालकों की पीड़ा ने अकुलाहट से भर दिया तो उपेक्षित पात्र कर्ण के दर्द को भी वह नेपथ्य से निकालकर केंद्र में लाए।
आज उनकी जयंती पर उनकी कविताएं दीगर मोर्चों के अलावा पाकिस्तान का संदर्भ में भी प्रासंगिक दिख रही हैं। तलवार की भाषा भी आवश्यक होती है।
याद रखना चाहिए:
क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल
सबका लिया सहारा
पर नर-व्याघ्र सुयोधन कहो
कहां तुमसे कब हारा।
रणभूमि में लड़े जाने वाले समर के शेष होने की ही नहीं, अपितु हर रण में निर्णायक होने की चेतना के उनके संदेश अब भी प्रासंगिक हैं।
समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध
जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनके भी अपराध।
किसी भी अनिवार्य युद्ध को सर्वाधिक खतरा केवल तटस्थता से होता है।
दिनकर अब भी आलोकित कर रहे हैं और आगे भी करते रहेंगे....दिनकर के लेखन कर्म से परिचित पाठक जानते हैं कि यह पंक्ति औपचारिक नहीं।