पेरिस समझौता : राजस्थान की तर्ज पर उत्तराखंड, हिमाचल, पंजाब, हरियाणा और दिल्ली एनसीआर में पौधरोपण जरूरी
वनों पर आबादी की अत्यधिक निर्भरता ही उनके क्षरण का कारण भी है। इससे निपटने के लिए पौधारोपण ही श्रेष्ठ विकल्प है। जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए भारत सरकार के निर्धारित लक्ष्य वन क्षेत्र में वृद्धि से ही संभव हैं। इसके लिए सघन पौधारोपण करना होगा।
डा. रेनू सिंह। वनों पर बढ़ते मानवीय दबाव को कम करने के लिए अधिक से अधिक पौधारोपण नितांत आवश्यक हो गया है। इसके लिए नीति-निर्धारकों को जनता को जागरूक करना होगा। अब भी 60 प्रतिशत ग्रामीण आबादी की दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जंगलों पर निर्भरता बनी हुई है। कृषि उपकरण से लेकर पशुओं का हरा चारा तक जंगलों से ही लिया जा रहा है। दूसरा यह कि वर्तमान में जिस गति से वनों का क्षरण हो रहा है, उसकी भरपाई पौधारोपण के माध्यम से ही संभव है।
देश में वन अनावरण घटने का सबसे बड़ा कारण मांग और आपूर्ति में बड़ा अंतर होना है। फर्नीचर उद्योग, पेपर उद्योग जैसे दर्जनों औद्योगिक क्षेत्रों की जरूरतें तभी पूरी होंगी जब हमारे पास पर्याप्त मात्रा में वन संपदा होगी। वर्तमान में इन उद्योगों के लिए कच्चे माल के रूप में 18 से 20 प्रतिशत की ही आपूर्ति हो पा रही है। बाकी कच्चा माल आयात होता है। वनों के अत्यधिक दोहन व कम पौधारोपण से जैव विविधता भी खतरे में हैं। कई पौधों की प्रजातियां विलुप्त होने के कगार पर हैं।
इन प्रजातियों के संरक्षण के लिए विशेष प्रयास की जरूरत है। मौजूदा परिस्थितियों में पौधारोपण की व्यवस्था में भी बदलाव की जरूरत है। खनन वाले क्षेत्र और बंजर भूमि पर अधिक पौधारोपण किया जाना चाहिए। भारतीय वन अनुसंधान संस्थान (एफआरआइ) ऐसे क्षेत्रों में पौधारोपण की योजना पर तेजी से काम कर रहा है। राजस्थान के कई ऐसे क्षेत्र हैं, जहां बढ़ते खनन से मरुस्थल तेजी से बढ़ता जा रहा था, इनमें एफआरआइ ने ग्रामीणों के सहयोग से पौधारोपण करवाया। इसके बाद यहां हरे-भरे जंगल तैयार हो गए हैं। ऐसे ही सघन पौधारोपण की योजना उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, पंजाब, हरियाणा और दिल्ली एनसीआर क्षेत्र में चलाने की आवश्यकता है।
पौधारोपण बढ़ाने से कार्बन उत्सर्जन को कम करने में मदद मिलेगी। कार्बन दुष्प्रभाव को कम करने वाले पौधों की प्रजातियों की पहचान भी की जानी चाहिए। वैश्विक वन संसाधन आकलन-2020 की रिपोर्ट के अनुसार विश्व में घटते वनों से पर्यावरण को नुकसान पहुंच रहा है। इस समय देश के वनों में 25.66 अरब टन कार्बन डाई आक्साइड का स्टाक है। वार्षिक स्टाक की दर देखी जाए तो यह 0.128 अरब टन है। इस तरह वर्ष 2030 तक 1.92 अरब टन का स्टाक संभव है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पेरिस समझौते में 2.5 से 3.0 अरब टन तक कार्बन स्टाक यानी कार्बन डाईआक्साइड सोखने की क्षमता बढ़ाने का वादा किया है। इसके लिए कुल भूमि के 33 प्रतिशत हिस्से पर वन होने चाहिए, जबकि वर्तमान में देश में 24 प्रतिशत ही वन क्षेत्र हैं। नौ प्रतिशत वन भूभाग को बढ़ाना बड़ी चुनौती है। वर्तमान में अधिसूचित वनों की बदौलत यह लक्ष्य हासिल करना संभव नहीं है। यह तभी हो पाएगा, जब निजी व कृषि भूमि पर वनीकरण को बढ़ावा दिया जाए।
वन संसाधन आकलन- 2015 के अनुसार भारत वन क्षेत्र में 10वें स्थान पर है। इससे उम्मीद बढ़ती है कि थोड़ा और प्रयास किया जाए तो वर्ष 2030 के लक्ष्य को हासिल कर पाना उतना मुश्किल भी नहीं होगा। हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि वन स्वयं भी जलवायु परिवर्तन के कारण प्रभावित हो रहे हैं। तापमान में बढ़ोतरी और वर्षा चक्र में बदलाव से ऐसा हो रहा है। भारतीय वन सर्वेक्षण की हालिया रिपोर्ट में भी इस पर्र चिंता जताई गई है। इससे निपटने के लिए भी सघन और तार्किक पौधारोपण आवश्यक है।
(लेखिका वन अनुसंधान संस्थान, देहरादून की निदेशक हैं।)