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पति की अंतिम इच्छा पूरी करने के लिए शुरू की एंबुलेंस सेवा, बचाती हैं सैकड़ों जानें

सुरेश हमेशा मुझसे अपनी एक इच्छा जाहिर करते थे कि काश हमारे पास कई एंबुलेंस हों और हम हर जरूरतमंद के पास एकदम समय पर पहुंच सकें।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Fri, 15 Jun 2018 01:08 PM (IST)Updated: Fri, 15 Jun 2018 02:12 PM (IST)
पति की अंतिम इच्छा पूरी करने के लिए शुरू की एंबुलेंस सेवा, बचाती हैं सैकड़ों जानें
पति की अंतिम इच्छा पूरी करने के लिए शुरू की एंबुलेंस सेवा, बचाती हैं सैकड़ों जानें

नई दिल्ली [मनु त्यागी]। क्या आपने कभी किसी महिला को एंबुलेंस चलाते हुए देखा है? एंबुलेंस का स्ट्रिंग महिलाओं के हाथ में कम ही देखने को मिलता है। लेकिन दूसरी तरफ राधिका जैसी महिला हैं जो खुद तो एंबुलेंस चला ही रही हैं, 12 गाड़ियों सहित एंबुलेंस सेवा का संचालन भी बखूब कर रही हैं। मेंगलुरु, कर्नाटक निवासी राधिका ने एंबुलेंस सेवा को व्यावसायिक नहीं बल्कि भावनात्मक दृष्टिकोण से प्रेरित हो पूरे समर्पण भाव से अपनाया है। वह भी बेहद जटिल परिस्थितियों में।

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पति की मौत के बाद एंबुलेंस चलाना किया शुरू
कक्षा छह तक पढ़ीं 47 वर्षीय राधिका ने साल 2002 में पति सुरेश की कैंसर के कारण हुई मौत के बाद एंबुलेंस चलाना शुरू किया। राधिका की दो बेटियां हैं। कहती हैं, उस समय मेरे सामने आर्थिक और बेटियों के भविष्य का संकट आ खड़ा हुआ था। मेरे पति शहर के एक अस्पताल में एंबुलेंस चलाते थे और मैं अस्पताल में आया के रूप में काम करती थी।

पति की अंतिम इच्छा की पूरी
सुरेश हमेशा मुझसे अपनी एक इच्छा जाहिर करते थे कि काश हमारे पास कई एंबुलेंस हों और हम हर जरूरतमंद के पास एकदम समय पर पहुंच सकें। सड़क पर या कहीं भी किसी इंसान की समय पर अस्पताल न पहुंच पाने के कारण मृत्यु न हो। आज मैं बस अपने पति का वही सपना पूरा कर रही हूं और अपनी बेटियों को भी काबिल बना रही हूं। मेरी अशिक्षा मेरे लिए हर जगह बाधा बनी, लेकिन आज यदि कुछ बेहतर है तो इसके लिए मैंने अपने जीवन को समर्पित किया है। एक-एक पाई बड़ी मुश्किल से जोड़ी है।

पति ने एंबुलेंस चलाना सिखाया
सुरेश ने मुझे एंबुलेंस चलाना सिखाया था। आज वही मेरी रीढ़ बनी। उस वक्त मेरी उम्र कम थी और बेटियां भी सात और चार साल की थीं। शुरुआत में मैंने बैंक से लोन लेकर एक एंबुलेंस खरीदी थी, जिसका ऑल इंडिया परमिट था। मैं उसमें मरीजों को लेकर कर्नाटक के विभिन्न हिस्सों के अलावा उत्तर और मध्य भारत के अस्पतालों में कई बार गई हूं।

सुरेश के सपनों ने दी हिम्मत
कई बार ऐसी परिस्थिति भी आई कि रात के वक्त घने जंगलों के रास्ते से एंबुलेंस लेकर गुजरना पड़ा, लेकिन सुरेश के सपने ने मुझे हिम्मत दी। उनका कैंसर जैसी बीमारी से जूझना मुझे याद आता और मेरी रूह कंपा देता था। यही बात हौसला भी बढ़ा देती थी कि किसी और के साथ ऐसी परिस्थिति न आए। उसके लिए अपनी ओर से कुछ सहयोग कर सकूं। आज डेढ़ दशक की मेहनत में 12 एंबुलेंस हैं और आठ ड्राइवर हैं। जिन्हें देशभर में कहीं भी एंबुलेंस ले जाने की अनुमति है। आज भी ड्राइवर होने के बावजूद भी खुद भी एंबुलेंस चलाती हूं। जरूरतमंदों और गरीबों को नि:शुल्क सेवा देने का प्रयास करती हूं। 


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