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हिंदी में हस्ताक्षर करने पर पदोन्‍नति रुकी, फिर भी नहीं मानी हार; आखिरकार 11 साल बाद जीती जंग

न बैंक प्रबंधन माना न ही डॉ. बिल्लौरे। इस बीच उनका तबादला पहले भोपाल फिर वहां से बहुत दूर निमाड़ क्षेत्र में हुआ। इसके बाद उन्हें ग्रामीण शाखा में भेजा गया।

By Tilak RajEdited By: Published: Sun, 13 Sep 2020 07:11 PM (IST)Updated: Mon, 14 Sep 2020 08:57 AM (IST)
हिंदी में हस्ताक्षर करने पर पदोन्‍नति रुकी, फिर भी नहीं मानी हार; आखिरकार 11 साल बाद जीती जंग
हिंदी में हस्ताक्षर करने पर पदोन्‍नति रुकी, फिर भी नहीं मानी हार; आखिरकार 11 साल बाद जीती जंग

इंदौर, ईश्वर शर्मा। यह कहानी हिंदी के ऐसे बेटे की है, जिसने अपने ही बैंक प्रबंधन से हिंदी में हस्ताक्षर को लेकर 11 साल तक लड़ाई लड़ी। इस बीच तबादले हुए, पदोन्‍नति रुकी, मगर उन्होंने हार नहीं मानी। अंतत: लंबी व संघर्षपूर्ण लड़ाई के बाद 1994 में इन्हें जीत मिली। देखने में सामान्य, लेकिन यह अनूठी लड़ाई वर्ष 1983 में तब शुरू हुई, जब डॉ. ओम बिल्लौरे मध्य प्रदेश के हरदा नगर स्थित भारतीय स्टेट बैंक की शाखा में लिपिक के रूप में पदस्थ थे। वहां उन्होंने बैंक के अंदरूनी महत्वपूर्ण दस्तावेज 'निर्धारित हस्ताक्षर पत्रक' पर हिंदी में हस्ताक्षर किए। यह देख बैंक प्रबंधन ने कहा- अंग्रेजी में हस्ताक्षर कीजिए, हिंदी में नहीं चलेंगे। डॉ. बिल्लौरे को बात चुभ गई। वे हिंदी पर अड़ गए। हस्ताक्षर पत्रक जब मुख्य शाखा भोपाल गया, तो वहां से भी अंग्रेजी में हस्ताक्षर का दबाव बनाया गया, लेकिन डॉ. बिल्लौरे पीछे नहीं हटे। अब हस्ताक्षर पत्रक मुंबई मुख्यालय पहुंचा। वहां से भी अंग्रेजी में हस्ताक्षर के लिए कहा गया। संकेत भी दिए गए कि 'मान जाओ, वरना मुश्किलें उठानी होंगी।' किंतु उन्होंने कहा- हिंदी मेरी मां है और मां के लिए नौकरी भी कुर्बान है।

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आखिरकार 1994 में मिली जीत

न बैंक प्रबंधन माना, न ही डॉ. बिल्लौरे। इस बीच उनका तबादला पहले भोपाल, फिर वहां से बहुत दूर निमाड़ क्षेत्र में हुआ। इसके बाद उन्हें ग्रामीण शाखा में भेजा गया। पदोन्‍नति के लिए हुए साक्षात्कार में भी जब डॉ. बिल्लौरे हिंदी पर अड़े रहे तो उन्हें कम अंक मिले। इससे पदोन्‍नति रुक गई। फिर भी वे न माने। अंतत: हिंदी की जीत हुई और 1994 में बैंक प्रबंधन ने उनके हिंदी में हस्ताक्षर को स्वीकार किया।

इसलिए जरूरी थी हस्ताक्षर की मान्यता

नियम था कि बैंक की हर शाखा अपने अधिकारी के हस्ताक्षर एक 'निर्धारित हस्ताक्षर पत्रक' पर करवाकर बैंक मुख्यालय को भेजेगी। वहां हस्ताक्षर व संबंधित अधिकारी के उपनाम के आधार पर एक संदर्भ नंबर जारी होगा, जिसे देश की सभी बैंकों को भेजा जाएगा। सभी बैंक उस संदर्भ नंबर व हस्ताक्षर को अपने रिकॉर्ड में रखेंगे। जब भी कोई बैंक ड्राफ्ट जारी करेगा, तब ड्राफ्ट पाने वाला बैंक उस पर किए गए अधिकारी के हस्ताक्षर का मिलान रिकॉर्ड में रखे गए हस्ताक्षर व संदर्भ नंबर से करेगा। मिलान होने पर ही पैसा जारी किया जाएगा अन्यथा नहीं।

विशेष सील में गर्व भी था, अपमान भी

हस्ताक्षर मान्य न होने के बावजूद बैंक प्रबंधन को डॉ. बिल्लौरे से काम तो लेना ही था, इसलिए हस्ताक्षर की जगह 'विशेष सील' बनवाई गई। बिल्लौरे द्वारा जारी ड्राफ्ट पर यह 'विशेष सील' लगाते हुए यह लिखा जाता- इनके हस्ताक्षर मुख्यालय से मान्य नहीं हुए हैं। अत: इस सील को सही माना जाए। डॉ. बिल्लौरे के मुताबिक, बैंक की दृष्टि में यह मेरा अपमान था, लेकिन मेरी दृष्टि में यह गर्व की बात थी। डॉ. बिल्लौरे ने अपने कड़वे अनुभव देखते हुए आम जनता की सहायता के लिए 'आधुनिक बैंकिंग में शब्द निर्णय' नामक पुस्तक लिखी। वर्ष 1997 में इस पुस्तक का विमोचन तत्कालीन राज्यपाल मो. शफी कुरैशी ने किया और सराहा भी।

आखिरकार हस्ताक्षर को भाषा की श्रेणी से किया गया बाहर

भारतीय स्टेट बैंक के प्रबंधक (राजभाषा) व सदस्य सचिव, नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति (बैंक) इंदौर आशीष भवनानी ने बताया कि पहले बैंकों में अंग्रेजी में हस्ताक्षर के लिए अनकहा दबाव रहता था। भारतीय रिजर्व बैंक ने 2009-10 में देश की सभी बैंकों के लिए मास्टर सर्कुलर जारी कर हस्ताक्षर को भाषा की श्रेणी से बाहर कर दिया। तबसे बैंक किसी भी भाषा में हस्ताक्षर मान्य करते हैं। संभव है यह निर्णय डॉ. बिल्लौरे के प्रकरण या ऐसे ही मामलों से बने दबाव के कारण लिया गया हो।


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