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बजट में सरकार का एजेंडा, खेती के रास्ते ही भागेगी गांव की गरीबी

देश की दो तिहाई से अधिक आबादी आज भी खेती की जर्जर प्रणाली पर निर्भर है। केंद्र की राजग सरकार ने इसे बखूबी समझ लिया है

By Sachin BajpaiEdited By: Published: Thu, 02 Feb 2017 07:34 PM (IST)Updated: Fri, 03 Feb 2017 09:39 AM (IST)
बजट में सरकार का एजेंडा, खेती के रास्ते ही भागेगी गांव की गरीबी
बजट में सरकार का एजेंडा, खेती के रास्ते ही भागेगी गांव की गरीबी

नई दिल्ली, [सुरेंद्र प्रसाद सिंह]। गांवों की गरीबी केवल खेती के रास्ते ही भाग सकती है, जिसे सरकार ने अख्तियार कर लिया है। गांवों को संपन्न बनाने और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत करने से ही खेती के भारी बोझ को घटाने में मदद मिल सकती है। इसके लिए सरकार ने आम बजट में कई असरदार प्रावधान किये हैं। यह सरकार की खेती व किसानों पर मेहरबानी नहीं बल्कि बिगड़ी अर्थव्यवस्था की मजबूरी भी है। इसमें सुधार के लिए ग्रामीण अर्थव्यवस्था का मजबूत होना निहायत जरूरी है।

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देश की दो तिहाई से अधिक आबादी आज भी खेती की जर्जर प्रणाली पर निर्भर है। केंद्र की राजग सरकार ने इसे बखूबी समझ लिया है कि देश को विकास की पटरी पर तेज गति से दौड़ाने के लिए गांवों को साथ लेकर ही चलना होगा। यही वजह है कि इस सरकार का दूसरे साल का बजट भी ग्रामीण विकास व रोजगारोन्मुख है, जिसमें खेती व ग्रामीण विकास पर सबसे ज्यादा जोर दिया गया है।

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आगामी वित्त वर्ष 2017-18 के आम बजट के केंद्र में गांव, गरीब, किसान और खेती को उच्च प्राथमिकता दी गई है। खेती की विकास दर को मिली गति ने सरकार के उत्साह और बढ़ा दिया है। चालू वित्त वर्ष के दौरान कृषि क्षेत्र की विकास दर 4.1 फीसद को छूने लगी है। गांव की 90 फीसद आबादी पूरी तरह खेती पर निर्भर है, जो कृषि क्षेत्र के लिए बोझ बन गई है।

कृषि देश का सबसे बड़ा रोजगार देने वाला क्षेत्र है, लेकिन बीमार खेती में रोजगार की संभावनाएं क्षीण हो गई है। सरकार इसे स्वस्थ बनाकर जहां रोजगार के साधन मुहैया कराना चाहती है, वहीं घाटे के सौदे वाली खेती को लाभ में तब्दील करने की कोशिश कर रही है। दरअसल, हिसाब लगाया जाए तो देश के हर गांव को सालाना 60 लाख रुपये की सरकारी मदद मुहैया कराई जाती है। लेकिन जवाबदेही व पारदर्शिता के अभाव में इसका असर नहीं दिख रहा है, जिसके लिए सरकार ने डिजीटल गांव बनाने की घोषणा की है।

देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में खेती हिस्सेदारी साल-दर-साल घटकर 16-17 फीसद पर अटक गई है। जबकि इसी खेती पर देश की 60 फीसद आबादी का भार है। सरकार ने अपने दो सालों के बजट में इस असंतुलन को दूर करने की कोशिश की है। दरअसल, देश के नीति नियामकों को मालूम है कि अकेला कृषि क्षेत्र ही है, जिसके विकास से समूची अर्थव्यवस्था सुधर जाएगी। मात्र बेहतर मानसून की बारिश से मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर की बांछें खिल जाती हैं।

कृषि क्षेत्र में घटता निवेश गंभीर चिंता का विषय है, वित्त मंत्री ने इसे भांपकर ही इसमें निजी व सरकारी निवेश बढ़ाने की जरूरत समझी है। बजट में इस दिशा में प्रावधान किये गये हैं। मिट्टी की घटती उर्वरता को बढ़ाने, सिंचाई के साधन, फर्टिलाइजर व कीटनाशकों की उपलब्धता के साथ उन्नत प्रजाति के बीजों को मुहैया कराने को प्राथमिकता पपर लिया गया है। किसानों को जागरुक बनाने की इससे कहीं ज्यादा जरूरी समझा गया है।

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ग्रामीण अर्थव्यवस्था की रीढ़ किसान, खेतिहर मजदूर और वहां के व्यापारियों की घटती क्रय शक्ति समूची वित्तीय श्रृंखला को कमजोर बना रही है। सरकार इस कमजोर कड़ी को मजबूत बनाने में जुट गई है। इस एक तीर से वित्त मंत्री ने कई निशाने साधे हैं।


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