धर्म की राजनीति, लोकतंत्र में उचित नहीं धर्म या पंथ का हस्तक्षेप
लोकतंत्र में धर्म या पंथ का हस्तक्षेप बिल्कुल भी उचित नहीं है। चाहे वह मंदिर हो, मस्जिद हो गुरुद्वारा हो, चर्च हो या डेरा हो।
नई दिल्ली [हरेंद्र प्रताप]। आपातकाल में हुई नसबंदी से नाराज जामा मस्जिद के इमाम ने 1977 के चुनाव में कांग्रेस को हराने हेतु फतवा जारी किया था। 1977 चुनाव में कांग्रेस की हार हुई तो कुछ समाजवादी नेताओं ने वाहवाही में जीत का सारा श्रेय इमाम साहब को दे दिया। यह बात अलग है कि 1977 का चुनाव लोकतंत्र बनाम तानाशाही का था जिसमें लोकतंत्र विजयी हुआ था। उस समय से लेकर अब तक तो लगभग हर चुनाव के समय किसी न किसी इमाम का फतवा किसी के पक्ष या विपक्ष में आ ही जाता है। इमामों की देखा-देखी अब ईसाई मिशनरी के बिशप भी चुनावों में प्रत्यक्ष रूप से हस्तक्षेप करने लगे हैं। गुजरात विधानसभा चुनाव के समय रोमन कैथोलिक मिशनरी, गुजरात के आर्कबिशप थॉमस मैकवॉ ने एक पत्र जारी किया जिसमें उन्होंने कहा कि गुजरात चुनाव में अगर राष्ट्रवादी जीतते हैं तो वे देश को गलत रास्ते पर ले जाएंगे।
गुजरात के आर्कबिशप की नाराजगी को समझना होगा। पूर्वोत्तर राज्यों की तरह गुजरात में भी ईसाई मिशनरी सेवा के नाम पर धर्मांतरण के काम में लगी हुई हैं। उसे सफलता भी मिल रही थी। 1971-81 में ईसाई जनसंख्या वृद्धि दर राष्ट्रीय स्तर पर 19.2 प्रतिशत और गुजरात में 21.36 प्रतिशत थी। 1981-91 में यह दर राष्ट्रीय स्तर पर 17 प्रतिशत और गुजरात में 36.96 प्रतिशत हो गई। 1991-2001 में वृद्धि दर राष्ट्रीय स्तर पर 22.1 प्रतिशत तो गुजरात में 56.30 प्रतिशत थी। आर्कबिशप की नाराजगी का मुख्य कारण है पंथ परिवर्तन में आई गिरावट। 2001-2011 में राष्ट्रीय स्तर पर ईसाई जनसंख्या वृद्धि दर 15.52 प्रतिशत थी पर गुजरात में ईसाई जनसंख्या वृद्धि दर घट कर 11.29 हो गई। गुजरात गांधीनगर के आर्कबिशप थॉमस मैकवॉ के राष्ट्रवादियों के खिलाफ प्रसारित पत्र से एक बात और प्रमाणित हो गई है कि उनके मुताबिक साम्राज्यवाद या उपनिवेशवाद और विस्तारवाद की राह में राष्ट्रवाद सबसे बड़ी बाधा है। भारत के बाहर विकसित दुनिया के तीनों प्रभावी विचार ईसाईयत, इस्लाम और साम्यवाद या समाजवाद अंतरराष्ट्रवाद मानते हैं। उन्होंने दुनिया को दो भागों में बांटकर अपने विस्तारवाद को अमली जामा पहनाने का सपना देखा है।
पूर्वोत्तर के नगालैंड, मेघालय और मिजोरम तो ईसाई बहुल हो गए हैं और जल्द ही मणिपुर और अरुणाचल भी ईसाई बहुल होने वाले है। नगालैंड के आतंकवादी एनएससीएन का भय अरुणाचल के चुनाव में देखने को मिला। एनएससीएन के प्रभाव वाले क्षेत्र के प्रत्याशी प्रत्येक दो दिन पर अपने मोबाइल का सिम बदल देते थे क्योंकि उनसे उगाही की मांग होती थी। चर्च के वास्तविक चेहरे को देखना है तो पूर्वोत्तर के राज्यों में जाकर जमीनी स्तर पर उन्हें समझना होगा। माना जाता है कि पूर्वोत्तर राज्यों में सक्रिय अधिकतर आतंकी एवं अलगाववादी संगठनों का संचालन वहां के कुछ चर्च करते हैं। राजनीतिक दलों के प्रत्याशियों ने किस संगठन को कितना पैसा दिया उनसे व्यक्तिगत रूप से बात करने पर मालूम हो जाता है। अगर सेवा के कार्य में ईसाई मिशनरी सक्रिय है तो राष्ट्रवादी संगठन भी अपने सीमित साधन के बल पर देशव्यापी सेवा का कार्य कर रहे है। राष्ट्रवादी संगठनों के सेवा कार्य से पंथ परिवर्तन करना कठिन होता जा रहा है। लेकिन सेवा के एकाधिकार की इनकी मानसिकता कितनी हिंसक है यह 1997 में जगजाहिर हो चुका है।
पूर्वोत्तर में राष्ट्रवादी संगठनों के द्वारा भी शिक्षा एवं स्वास्थ्य आदि के अनेकों प्रकल्प चलते है, जिसको लेकर ईसाई मिशनरी नाराज रहती हैं। अनेकों बार इन प्रकल्पों को बंद करने की धमकी भी मिलती रहती है। 6 अगस्त, 1999 को त्रिपुरा के दलाई जिला बैपटिस्ट चर्च द्वारा संचालित उग्रवादी संगठन एनएलएफटी के उग्रवादियों ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के क्षेत्र कार्यवाह श्यामल कांति दास गुप्ता एवं बनवासी कल्याण आश्रम के दीनेंद्रनाथ डे, सुधामय दत्ता तथा सुहंकर चक्रवर्ती का अपहरण कर लिया तथा बाद में इनकी हत्या कर दी। गुजरात, नगालैंड और अब दिल्ली के चर्चों की नाराजगी का कारण यह है कि 1991 से 2001 की जनगणना के मुकाबले 2001 से 2011 की गणना में ईसाई जनसंख्या वृद्धि दर हिंदू जनसंख्या वृद्धि दर से कम हो गई। दूसरा कारण यह है कि कश्मीर की तरह ही पूर्वोत्तर के चर्च द्वारा संचालित आतंकवाद के खिलाफ 2015 में म्यांमार जाकर की गई सर्जिकल स्ट्राइक। लेकिन सबसे बड़ा कारण है विदेशों से उन्हें मिलने वाले धन और उसके उपयोग पर सरकारी एजेंसियों की नजर।
पूर्वोत्तर का लोकतंत्र भी अब खुली हवा में सांस लने लगा है। यहां सात में से छह राज्य ईसाई मिशनरी के चंगुल से मुक्त हो गए हैं। अब उन्हें मिजोरम के भी हाथ से निकलने का खतरा सता रहा है। लोकतंत्र में पंथ का हस्तक्षेप चाहे वह मंदिर हो, मस्जिद हो गुरुद्वारा हो, चर्च हो या डेरा हो, ठीक नही है। इनका काम व्यक्ति और चरित्र निर्माण है। आप व्यक्ति की अध्यात्मिक शक्ति को जगाएं। अच्छे लोग अगर राजनीति में आते हैं तो उनका स्वागत है पर अपने निहित स्वार्थ के लिए अगर कोई भी धर्मगुरू देश की राजनीतिक दशा-दिशा को बिगाड़ना या अपनी दासी बनाना चाहेंगे तो प्रतिक्रिया होना स्वभाविक है।
जितना सच यह है कि धर्म और राजनीति अलहदा चीजें हैं और इनका घालमेल भारत जैसे उदार और पंथनिरपेक्ष राष्ट्र और समाज के लिए कतई उचित नहीं है, उतनी ही सच्ची बात यह भी है कि भारत का सामाजिक तानाबाना बेहद मजबूत और सुदृढ़ है। कुछ फिरकापरस्त लोग भले ही अपने तुच्छ लाभ के लिए मौके का फायदा उठाकर समाज को बांटने-आपस में लड़ाने की कोशिश करते हों, लेकिन आज भी यात्रा आदि के दौरान मिल-बांटकर खाने खिलाने की रवायत जिंदा है। तब हम सब यह बिल्कुल नहीं पूछते या सोचते कि सामने बैठा व्यक्ति किस संप्रदाय, जाति या धर्म से है। ऐसे सौहाद्र्रपूर्ण समाज में कोई धर्मगुरु तथाकथित अशांत माहौल होने के लिए चिंतित दिखाई दे तो कई तरह के सवाल खड़े होने लाजिमी हो जाते हैं। पहली बात तो धर्मगुरुओं का काम राजनीति करना नहीं है। वे तो समाज को सही दिशा दिखाने का काम करते रहे हैं। अपने धर्म की बातें समाज को बताना-सिखाना, नेकी के रास्ते पर चलने की शिक्षा देते रहे हैं। इसीलिए रोमन कैथोलिक के दिल्ली के आर्कबिशप अनिल कुटो ने जब देश भर के पादरियों को इस आशय का पत्र लिखा कि इस समय देश का जो राजनीतिक माहौल है, उसने लोकतांत्रिक सिद्धांतों और देश की पंथनिरपेक्ष पहचान के लिए खतरा पैदा कर दिया है, तो विवाद खड़ा होना लाजिमी हो गया। ऐसे में समाज को जोड़ने का काम करने वाले एक धर्मगुरु के रूप में आर्कबिशप की इस गैरजरूरी चिंता के मायनों की पड़ताल आज सबके लिए बड़ा मुद्दा है।
[पूर्व सदस्य, बिहार विधान परिषद]