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Pitru Paksha 2021: पितृपक्ष अपने पूर्वजों के प्रति अपनी श्रद्धा को दर्शाना

Pitru Paksha 2021 पितरों के प्रति अपनी श्रद्धा को दर्शाना ही श्रद्ध पर्व है। यह पारंपरिक पर्व भले ही माना जाता हो परंतु पश्चिमी देशों के अनेक विज्ञानियों ने भी पितरों के अस्तित्व को स्वीकार भी किया है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Tue, 28 Sep 2021 09:29 AM (IST)Updated: Tue, 28 Sep 2021 09:42 AM (IST)
Pitru Paksha 2021: पितृपक्ष अपने पूर्वजों के प्रति अपनी श्रद्धा को दर्शाना
पितृपक्ष में पितरों को अर्पण का है विशेष महत्व

ज्ञानेंद्र रावत। यह कटु सत्य है कि मरणोत्तर जीवन की अनुभूतियां संस्कारों के प्रभाव की ही प्रतिच्छाया होती हैं, इसलिए जिससे आत्मीयता का संस्कार अंकित हो उसकी भावनाओं पर लोकस्थ जीव प्रभावित होते हैं। कहा भी गया है कि मुक्त आत्माओं एवं पितरों के प्रति मनुष्य को वैसा ही श्रद्धाभाव रखना चाहिए जैसा देवों, प्रजापतियों तथा परमसत्ता के प्रति रहता है।

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गौरतलब है कि देवों, प्रजापतियों एवं ब्राह्मण को तो मनुष्यों की किसी सहायता की आवश्यकता नहीं पड़ती, किंतु पितरों को ऐसी आवश्यकता पड़ती है। इसी को दृष्टिगत रखते हुए मनीषियों ने पितरपूजन एवं श्रद्धकर्म की परंपरा प्रचलित की। याज्ञवल्क्य स्मृति में शुक्लपक्ष यानी उत्तरायण में देवताओं और कृष्णपक्ष यानी दक्षिणायन में पितरों का प्रभुत्व होता है। आश्विन कृष्णपक्ष जिसमें पितर सर्वाधिक सक्रिय रहते हैं, दक्षिणायन का मध्य भाग होता हैं। अत: पूर्णिमा को देवताओं एवं अमावस्या को पितरों का श्रद्ध किया जाता है। कन्या राशिगत सूर्य में आश्विन मास के कृष्णपक्ष में मृत्युतिथि के दिन श्रद्ध करने से पितर संतुष्ट होते हैं।

यह सच है कि श्रद्ध की मूल संकल्पना वैदिक दर्शन के कर्मवाद और पुनर्जन्मवाद पर आधारित है। यह सिलसिला उनकी मुक्ति तक लगातार जारी रहता है। इसलिए उनकी तृप्ति और संतुष्टि के लिए श्रद्ध आवश्यक है। इसलिए इस पर्व पर हमें प्रार्थना करनी चाहिए कि यदि हमारे पूर्वज प्रतीक्षाकाल में हैं तो उन्हें मोक्ष मिले और वे नया जीवन प्राप्त करें। इस रूप में श्रद्ध की प्रासंगिकता को नकारा नहीं जा सकता।

असलियत में आश्विन मास का कृष्ण पक्ष जिसे अंधियारा पाख भी कहा जाता है, पितृ पक्ष के रूप में विख्यात है। यह पितरों के प्रति श्रद्धा के समर्पण के पर्व के नाम से जाना जाता है। पितरों के इस पक्ष में उनको जलांजलि देकर तथा मृत्युतिथि को सामथ्र्यानुसार श्रद्धापूर्वक श्रद्ध करके पितृऋण चुकाया जाता है। हिंदू धर्म संस्कृति में इस पक्ष का विशेष महत्व है।

आदिकाल से यह धारणा बलवती रही है कि जब तक प्रेतत्व से मुक्ति नहीं मिलती, तब तक दूसरा जन्म नहीं होता। तात्पर्य यह कि जब तक स्वर्ग-नरक के भोग पूर्ण नहीं होते, मृतात्मा पुन: शरीर रूप धारण नहीं कर सकती। तब तक स्थूल शरीर को भिन्न-भिन्न रूप से अंत्येष्टि क्रिया करने के उपरांत भी एक सूक्ष्म शरीर धारण करना पड़ता है। इस अवस्था को पितर अवस्था कहा गया है। जब तक मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती, तब तक पुनर्जन्म और मृत्यु का क्रम निरंतर जारी रहता है। पौराणिक मान्यतानुसार मृतात्मा तत्काल एक अतिवाहिक शरीर धारण कर लेती है। अंत्येष्टि क्रिया यानी शवदाह आदि संस्कार क्रिया से लेकर दस दिनों तक किए जाने वाले ¨पडदान से आत्मा दूसरी भोगदेह धारण करती है। उसके पश्चात सपिंडीकरण के उपरांत वह तीसरा शरीर धारण करती है। यह शरीर कर्मो के अनुसार प्राप्त होता है।

उल्लेखनीय है कि अतिशय लोभी, भोगी, कृपण तथा जिनका तन-मन-धन सभी सांसारिकता में लीन रहता है, जो असमय जलकर, डूबकर, दुर्घटना अथवा आत्महत्या से मृत्यु को प्राप्त होते हैं या फिर वे जो कर्मभ्रष्ट होते हैं, उन्हें प्रेतत्व की प्राप्ति होती है। इन सभी अवस्थाओं से मुक्ति हेतु शास्त्रों में श्रद्ध का विधान है। श्रद्धा से श्रद्ध शब्द बना है और श्रद्धापूर्वक किया गया कार्य ही श्रद्ध कहलाता है।

कूर्मपुराण में उल्लेख है कि पितर अपने पूर्व गृह यह जानने के लिए आते हैं कि उनके कुल-परिवार के लोग उन्हें विस्मृत तो नहीं कर चुके हैं। यदि वे उन्हें श्रद्ध के माध्यम से इस पक्ष में याद नहीं करते तो उन्हें बहुत निराशा और दुख होता है। वे परिजन-संतान जो अपने परिश्रम और ईमानदारी से अर्जति धन से श्रद्धापूर्वक श्रद्ध करते हैं, उनको पितर दीर्घायु, यश, धन-धान्य, विद्या तथा विभिन्न प्रकार के समस्त सांसारिक सुखों का आशीर्वाद देकर प्रसन्नतापूर्वक अपने लोकों को प्रस्थान करते हैं।

विष्णुपुराण में कहा गया है कि जिनके पास न श्रद्ध करने की क्षमता है, न धन, न सामथ्र्य और न ही सामग्री, वे यदि भक्तिभाव से दोनों भुजाओं को साक्ष्य रूप में ऊपर उठाकर केवल जलांजलि देकर पितरों को प्रणाम करते हैं, वही पर्याप्त है। इससे ही पितर संतुष्ट हो जाते हैं। उनकी संतुष्टि के लिए श्रद्धा और भक्ति, सम्मान या आदरभाव ही पर्याप्त है। वर्तमान में आधुनिक विचारों वाले लोग इसे ढोंग, पाखंड और ढकोसला कहकर इसका मजाक उड़ाते हैं, जबकि पश्चिमी देश और उनके विज्ञानी भी आज भूत-प्रेत एवं पितरों के अस्तित्व को स्वीकारते हैं। फ्रांस के डा. इयूजेन ओस्टली एवं कैमीले फ्लेमेरियोन, इटली के सीझट लोंब्रोस्वे तथा ब्रिटेन के सर आर्थर कानन डायल एवं सर विलियम बैरेट जैसे प्रख्यात विद्वानों ने भी भूत-प्रेत तथा पितरों के अस्तित्व को स्वीकार कर इन्हें पितरों के सूक्ष्म शरीर यानी एक्टोप्लाज्मा की संज्ञा दी है।

[सामाजिक मामलों के जानकार]


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